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शय्यातर पिण्ड-ग्रहण विधि-निषेध 女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女女 बनते हैं। उनकी अर्थ संगति भी घटित होती है। "शयां करोतीति शय्याकरः" - जो भवन का निर्माता होता है। "शय्या धरतीति शय्याधरः, स्वामित्वेन परिरक्षति वा" अर्थात् जो शय्या का धारण या परिरक्षण करता है तथा अपनी आत्मा को नरक में जाने से बचाता है, वह शय्याधर कहलाता है।
"शय्यया - शय्याप्रदानेन तरति, संसार सागरं पारयति" - साधु-साध्वियों को जो मकान देकर संसार सागर को पार करता है, उसे शय्यातर कहते हैं।
इसी प्रकार 'शय्यादाता' शब्द भी यहाँ प्रयोजनीय है, जो शय्या देने के अर्थ को प्रकट करता है।
यहाँ प्रयुक्त 'पारिहारिक' शब्द 'परिहार' से बना है। यह 'परि' उपसर्गपूर्वक 'ह' धातु एवं 'घञ्' प्रत्यय के योग से बना है। उसका अर्थ छोड़ना, अर्पित करना, देना आदि है।
. साधु शय्यातर के यहाँ से 'भक्त-पान' स्वीकार नहीं करते। अत एव वह गृही पारिहारिक कहा जाता है। अथवा वह साधु-साध्वियों को देता है, अर्पित करता है, वह पारिहारिक कहा जाता है। . एकाधिक स्वामियों द्वारा अधिकृत घर में एक को शय्यातर मानने का आशय यह है कि शेष स्वामी -चारित्रात्माओं को भक्त-पान आदि प्रदान करने से वंचित न रहें।
यहाँ यह भी ज्ञापनीय है कि समय-समय पर. उनमें से किसी अन्य को भी शय्यातर . माना जा सकता है, जिससे सभी को सत्पात्र दान का अवसर प्राप्त हो।
सूत्र में जो “णिव्विसेजा' क्रिया प्रयुक्त हुई है, उसके टीकाकार ने दो अर्थ किए हैं। निर्विशेत् - विसर्जयेत्-शय्यातरत्वेन न गणयेत् - अन्यों को शय्यातर न मानना।
.दूसरा - प्रविशेत् आहारार्थ तेषां गृहेषु अनुविशेत् - से शय्यातर कंल्प से भिन्न के घरों में भिक्षा हेतु प्रवेश करना विहित है।
__ शय्यातर पिण्ड-ग्रहण विधि-निषेध . जो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा सागारियपिण्डं बहिया अणीहडं असंसर्ल्ड वा संसहुं वा पडिगाहित्तए॥१४॥
णो कप्पड़ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा सागारियपिण्डं बहिया णीहडं असंसर्ल्ड
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