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विश्रामगृह आदि में ठहराव का विधि-निषेध **** ******** ************* ******* ************ **** **** है तथा न रोकने से गृहस्वामी रुष्ट होता है तथा यह भी उसके मन में आशंका उत्पन्न हो सकती है कि साधुओं ने उन पदार्थों का भोग कर लिया हो। __४. यदि साधु स्वयं उन्हें खा लेता है. तो उसे अदत्त-चौर्य का दोष लगता है।
५. मात्र इतना ही नहीं, खाद्य पदार्थों का सेवन न करने पर भी उनकी प्रशस्त-अप्रशस्त गंध से मानसिक उद्वेलन भी संभावित है, जो कर्मबंध के हेतु हैं। .
ऐसे स्थान में भी यदि अपवाद स्वरूप प्रवास करना पड़े तो पूर्व सूत्रानुसार, शस्त्र मर्यादानुरूप ठहराव वांछनीय है।
विश्रामगृह आदि में ठहराव का विधि-निषेध णो कप्पइ णिग्गंथीणं अहे आगमणगिहंसि वा वियडगिहंसि वा वंसीमूलंसि वा रुक्खमूलंसि वा अब्भावगासियंसि वा वत्थए ॥११॥
पइ णिग्गंथाणं अहे आगमणगिहंसि वा वियडगिहंसि वा वंसीमूलंसि वा मलेसि वा अब्भावगासियंसि वा वत्थए॥१२॥
कठिन शब्दार्थ - अहे - अधः - मध्य (अन्दर), आगमणगिहंसि - आगमनगृह - विश्रामगृह, वियडगिहंसि - चारों ओर से खुला मकान, वंसीमूलंसि - बरगद आदि पेड़ के नीचे, अब्भावगासियंसि - ऊपर से अधिक खुले घर में या खुले आकाश के नीचे। ____भावार्थ - ११. साध्वियों को आगमनगृह - धर्मशाला आदि में, चारों ओर से खुले घर में, बांस आदि से निर्मित जालीदार घर में, वृक्ष आदि के नीचे या खुले आकाश या केवल चारदीवारीयुक्त गृह में ठहरना नहीं कल्पता है।
१२. साधुओं को आगमनगृह, चारों ओर से खुले मकान, बांस आदि से निर्मित भवन, पेड़ के नीचे या ऊपर से ढके और चौ तरफ से खुले आकाश के नीचे रहना कल्पता है। - विवेचन - सूत्र में प्रयुक्त विभिन्न प्रकार के आवासगृहों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार
9. आगमनगृह - जहाँ पर पथिकों का आना-जाना हो, ऐसा देवालय, धर्मस्थान या सार्वजनिक विश्राम स्थल।
१. विवृतगृह - खंभों आदि पर खड़ा किया हुआ भवन अर्थात् दो, तीन या चारों दिशाओं मेला तथा केवल ऊपर से ढका हुआ गृह।
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