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बृहत्कल्प सूत्र - प्रथम उद्देशक
वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रोंछन हेतु उपनिमंत्रित करे तो इन्हें 'सागारकृत' ग्रहण कर, प्रवर्त्तिनी के चरणों में रखकर पुनः उनकी आज्ञा से रखना और उपयोग करना कल्पता है।
४१. विचारभूमि या विहारभूमि के लिए ( उपाश्रय से) बाहर जाती हुई साध्वी को यदि कोई वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रोंछन हेतु अनुरोध करे तो इन्हें 'सागारकृत' ग्रहण कर, (पहले) प्रवर्त्तिनी के चरणों में रखकर पुनः उनकी आज्ञा से रखना और उपयोग करना कल्पता है।
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विवेचन - भिक्षाचर्या साधु जीवन का दैनंदिन क्रम है। इसीलिए भिक्षु शब्द साधु का पर्यायवाची है, जो “भिक्षतेति भिक्षुः " के अनुसार भिक्षा शब्द से ही निष्पन्न होता है । साधु भिक्षा हेतु भी आचार्य की या सिंघाटकपति की आज्ञा से ही जाता है। यदि भिक्षार्थ गए हुए साधु को गृही वस्त्र, पात्र आदि स्वीकार करने का अनुरोध करे तो साधु उन्हें प्रातिहारिक या ' सागारकृत' रूप में, उस संबंध में विशेष रूप से जाँच-पड़ताल कर स्वीकार कर सकता है।
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'सागारकृत' रूप में लेने का जो उल्लेख हुआ है, उसका तात्पर्य यह है कि साधु तो अपने आचार्य अथवा सिंघाटक प्रमुख की आज्ञा से आहारार्थ ही गया हुआ होता है, वस्त्र, पात्र आदि की अनुज्ञा प्राप्त नहीं होता ।
इसलिए आचार्य आदि की आज्ञा, तदनुरूप आवश्यकता इत्यादि के अनुसार जितना बांछित हो, उतना लेकर वापस लौटाने के आगार के साथ स्वीकार करना वांछित है ।
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भिक्षा के अतिरिक्त विचारभूमि या विहारभूमि में जाने के अवसर पर भी वस्त्रादि "सागारकृत" रूप में गृहीत किए जा सकते हैं ।
साधु अपनी इच्छाओं को नियंत्रित, शास्त्रमर्यादानुरूप संयमित रखे। अत एव यथेच्छा रूप में वस्त्रादि का ग्रहण नहीं करता। इसके पीछे भौतिक पदार्थों के प्रति अनासक्ति तथा अपरिग्रह भावना की विशेष अनुशंषा है।
साध्वी आचार्य या अपनी प्रवर्त्तिनी से आदेश लेकर वैसा करे ।
भाष्यकार ने साध्वियों के लिए यह विशेष निर्देश किया है कि वे सीधे वस्त्रादि ग्रहण न करे। आचार्य एवं साधुओं के माध्यम से ही ग्रहण करे । एतत्संबंधी विधिक्रम भाष्य में विस्तार से वर्णित है, तत्र द्रष्टव्य है।
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