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रात्रि में भक्तपान निषेध एवं इतर अपवाद विधान
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रात्रि में भक्तपान निषेध एवं इतर अपवाद विधान
णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा राओ वा वियाले वा असणं वा पावं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहित्तए णण्णत्थ एगेणं पुव्वपडिलेहिएणं सेज्जासंथारएणं ॥ ४२॥
it कप्पणिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा राओ वा वियाले वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिगाहित्तए, णण्णत्थ एगाए हरियाहडियाए, साविय परिभुत्ता वा धोया वा रत्ता वा घट्टा वा मट्ठा वा संपधूमिया वा ॥ ४३ ॥
कठिन शब्दार्थ - वियाले विकाल संध्या समय में, हरियाहडियाए - हृताहृतिका । भावार्थ - ४२. साधु-साध्वियों को रात्रि में या विकाल (संध्या समय) में अशन, पान, खादिम और स्वादिम ग्रहण करना नहीं कल्पता है ।
केवल एक पूर्व प्रतिलेखित शय्या - संस्तारक को छोड़कर ।
४३. साधु एवं साध्वियों को रात्रि में या संध्याकाल में वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रोंछन लेना नहीं कल्पता है।
केवल एक हृताहृतिका को छोड़कर ।
वह (हृताहृतिका) परियुंक्त, धौत, रक्त, घृष्ट, मृष्ट या सम्प्रधूमित हो तो भी रात्रि में ग्रहण करना कल्पता है।
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विवेचन - दशवैकालिक सूत्र में निर्देशित "राइभोयणवेरमण" के अनुसार रात्रिभोजन तो साधु-साध्वियों के लिए सर्वथा निषिद्ध है ही, इसे पाँच महाव्रतों के साथ-साथ छठे व्रत के रूप में मान्यता दी गई है।
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सूत्र क्रमांक ४२ में जो पूर्व प्रतिलेखित शय्या संस्तारक को ग्रहण करना बताया है। उसका आशय यह है कि सूर्यास्त पूर्व मकान मिल जाने पर भी कभी आवश्यकता से पाट आदि गृहस्थ की दुकान आदि से रात्रि में एक दो घंटे बाद भी मिलना संभव हो और सूर्यास्त पूर्व यदि उनकी प्रतिलेखना कर ली गई हो तो उसे रात्रि में भी ग्रहण किया जा सकता है। ऐसी परिस्थितियों की अपेक्षा से ही यह विधान समझना चाहिए।
भोज्य, पेय आदि पदार्थों के अतिरिक्त अन्य वस्तुएँ भी रात्रि में ग्राह्य नहीं मानी गई है। केवल 'हताहतिका' के रूप में एक अपवादिक स्थिति यहाँ वर्णित है।
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