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प्रतिबद्धशय्या (उपाश्रय) में प्रवास का विधि-निषेध
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. प्रतिबद्धशय्या (उपाश्रय) में प्रवास का विधि-निषेध णो कप्पइ णिग्गंथाणं पडिबद्धाए सेजाए वत्थए॥३०॥ कप्पइ णिग्गंथीणं पडिबद्धाए सेजाए वत्थए॥३१॥ भावार्थ - ३०. प्रतिबद्धशय्या (आवास स्थान) में साधुओं का प्रवास कल्पनीय नहीं है। ३१. साध्वियों के लिए प्रतिबद्धशय्या में प्रवास करना कल्पता है।
विवेचन - सूत्र में प्रयुक्त ‘शय्या' शब्द आवास का द्योतक है। आवास के स्थान में आवासी का अधिक समय अन्य कार्यों की अपेक्षा सोने या आराम करने में व्यतीत होता हैं। इस अपेक्षा से इसे आवास स्थान, शय्या शब्द से संज्ञित हुआ है। इसी आशय के कारण जिस स्थान में साधु-साध्वी रुकते हैं, उस स्थान के मालिक को 'शय्यातर' कहा जाता है।
आवास स्थान की अवस्थिति का भी परिणामों पर बड़ा असर होता है। इसीलिए यहाँ प्रतिबद्ध आवास स्थान व्याख्यात हुआ है। "प्रतिबंधन युक्तः प्रतिबद्धः" - के अनुसार मध्यवर्ती दीवाल तथा काष्ठफलक आदि के साथ गृहस्थ के घर से जुड़ा हुआ उपाश्रय प्रतिबद्ध शय्या कहा जाता है।
चूर्णिकार ने "द्रव्य प्रतिबद्ध" और "भाव प्रतिबद्ध" के रूप में इसके लिए दो भेद किए हैं।
भित्तिका आदि के व्यवधान से युक्त आवास द्रव्य प्रतिबद्ध कहा गया है।
भाव प्रतिबद्ध का आशय उस आवास से है, जिससे भावों में विकृति आना आशंकित हो। चूर्णिकार ने उसके चार भेद किए हैं -
१. जहाँ गृहवासी स्त्री-पुरुषों का एवं साधु का प्रस्रवण (मूत्रोत्सर्ग) स्थान एक हो। २. जहाँ घर के लोगों एवं साधुओं के बैठने का एक ही स्थान हो। . ३. जहाँ स्त्रियों का रूप-सौन्दर्य आदि दृष्टिगोचर होता हो।
४. जहाँ स्त्रियों की भाषा, आभरणों की झंकार तथा काम-विलासान्वित गोप्य शब्दादि सुनाई पड़ते हो।
इन चारों भेदों में सूचित प्रसंग ऐसे हैं, जिनसे मानसिक विचलन आशंकित है।
यद्यपि साध्वियों के लिए ऐसा स्थान कल्प्य कहा गया है किन्तु वह अपवाद रूप में ही है। चूर्णिकार ने इस संदर्भ में कुछ महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ दी हैं - वैसे सागारिकजन, जो उनके
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