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स्वयं को उपशान्त करने का विधान ************************************************ **********
साध्वियों द्वारा अपवाद रूप में वैसे मार्ग से जाना कल्प्य बतलाया गया है क्योंकि अन्य उपाश्रय न मिलने की स्थिति में यह व्यवस्था दी गई है। साधुओं के लिए जैसा आशंकित है, वैसा साध्वियों के लिए सामान्यतः नहीं हैं। सद्गृहस्थों के घर में से होकर जाना शील रक्षा की दृष्टि से निर्बाधित है। किन्तु साध्वियों को गृहस्थ के घर में से जाते समय आत्मनियंत्रित एवं शीलरक्षा में जागरूक रहना आवश्यक है।
स्वयं को उपशान करने का विधान भिक्खू य अहिगरणं कट्टतं अहिगरणं विओसवित्ता विओसवियपाहुडे - इच्छाए परो आढाएज्जा, इच्छाए परो णो आढाएज्जा, इच्छाए परो अब्भुटेजा, इच्छाए परो णो अब्भुटेजा, इच्छाए परो वंदेजा, इच्छाए परो णो वंदेज्जा, इच्छाए परो संभुंजेज्जा, इच्छाए परो णो संभुंजेजा, इच्छाए परो संवसेज्जा, इच्छाए परो णो संवसेज्जा, इच्छाए परो उवसमेज्जा, इच्छाए परो णो उवसमेजा, जो उवसमइ तस्स अस्थि आराहणा, जो ण उवसमइ तस्स णत्थि आराहणा, तम्हा अप्पणा चेव उवसमियव्वं, से किमाहु भंते (!)? उवसमसारं सामण्णं॥३४॥
कठिन शब्दार्थ - अहिगरणं - अधिकरण - कलह, कट्ट - करके, विओसवित्ता - उपशान्त कर, विओसवियपाहुडे - दुर्गति के मेहमान रूप कलह को शान्त किया हुआ, आढाएज्जा - आदर करे, अब्भुटेजा - अभ्युत्थित होवे - उठे, संभुंजेजा - भोजन करे (आहार करे), संवसेजा - साथ रहे, उवसमेजा - उपशान्त हो, उवसमइ - उपशान्त होता है, अत्थि - होती है, आराहणा - आराधना - संयम की आराधना, अप्पणा - अपने आपको, सामण्णं - श्रामण्य - श्रमण जीवन का सार।
भावार्थ - ३४. भिक्षु किसी के साथ अधिकरण - कलह हो जाने पर कलह को उपशान्त करे - स्वयं उपशांत एवं कलहरहित हो जाए। जिसके साथ कलह हुआ है (वह अन्य भिक्षु) -
इच्छा हो तो आदर करे, इच्छा न हो तो आदर न करे। इच्छा हो तो (उसके सम्मान में) उठे, इच्छा न हो तो न उठे। इच्छा हो तो वंदना करे, इच्छा न हो तो वंदना न करे।
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