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बृहत्कल्प सूत्र - प्रथम उद्देशक
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इच्छा हो तो साथ में आहार करे, इच्छा न हो तो न करे। इच्छा हो तो उसके साथ रहे, इच्छा न हो तो उसके साथ न रहे। इच्छा हो तो (स्वयं को) उपशान्त करे, इच्छा न हो तो उपशान्त न करे।
(वस्तुतः) जो उपशान्त होता है उसकी संयम आराधना होती है तथा अपने आपको उपशान्त नहीं करता है उसके (संयम की) आराधना नहीं होती है।
इसलिए स्वयं को (अवश्य ही) उपशान्त कर ही लेना चाहिए। हे भगवन्! ऐसा क्यों कहा गया है? उपशम ही श्रामण्य - श्रमण जीवन का सार (आधार) है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अधिकरण शब्द का प्रयोग हुआ है। "अधिकरोति - नरकगति प्रापयति यत् तत् अधिकरणम्" - इस व्युत्पत्ति के अनुसार वह भाव या कर्म जो नरकगति को प्राप्त कराता है, अधिकरण कहा गया है। यहाँ नरकगति प्रापक कारणों में मुख्य होने से 'अधिकरण' शब्द - कलह, कदाग्रह के लिए प्रयुक्त हुआ है। यद्यपि अहिंसा आदि महाव्रतों के परिपालक साधु सामान्यतः कलह, संघर्ष, विवाद आदि से दूर रहते ही हैं। किन्तु आखिर हैं तो मानव ही। अतः कदाचन आवेशात्मक स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जिससे परस्पर कलह, कहासुनी हो जाती है। वैसी स्थिति में साधु का कर्तव्य है कि वह अपने आपको उपशान्त करे, कलहात्मक मानसिकता से ऊँचा उठे। जिसके साथ ऐसा घटित हुआ हो, चाहिए तो उसे भी वैसा करना परन्तु प्रकृतिवश यदि सम्मुखीन (सामने वाला) साधु वैसा न कर सके तो उसके साथ वह ऐसा व्यवहार करे, जिससे उसका आवेश न बढ़े।
यद्यपि पारस्परिक आदर, सम्मान, सहभोजन, सहवास इत्यादि होते ही हैं किन्तु आवेश वश सामने वाला वैसा करने में अपनी इच्छा या रुचि न दिखाए तो उसके साथ वैसा करने का आग्रह न रखे क्योंकि उससे उसका आवेश बढ़ता है।
आवेश तो क्षणिक होता है। अतः कुछ समय के अनन्तर अनुपशान्त साधु शान्त हो सकता है।
विहार सम्बन्धी विधि-निषेध णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा वासावासासु चारए॥३५॥ कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा हेमंतगिम्हासु चारए॥३६॥
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