________________
बृहत्कल्प सूत्र - प्रथम उद्देशक kiktikd aikikikikikikikikikikikikikikikikikikatixxx जिसमें आवरणवस्त्रिका के बनाने का प्रायश्चित्त बतलाया गया है। निशीथ सूत्र एवं यहाँ आए वर्णन की संगति यों घटित होती है - यदि साधु-साध्वी को किसी गृहस्थ से अपने लिए बनाई गई आवरणिका प्राप्त हो तो वह ग्रहण करना कल्पता है अथवा तदुपयोगी वस्त्र प्राप्त होने पर उसे भी ले सकते हैं तथा यथायोग्य तरीके से उसका उपयोग भी किया जा सकता है।
जलतीर के निकट अवस्थित होने आदि का निषेध णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा दगतीरंसि चिट्ठित्तए वा णिसीइत्तए वा तुयट्टित्तए वा णिद्दाइत्तए वा पयलाइत्तए वा, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारमाहारित्तए, उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिठ्ठवित्तए, सज्झायं वा करेत्तए, धम्मजागरियं वा जागरित्तए, झाणं वा झाइत्तए, काउस्सग्गं वा ठाणं वा ठाइत्तए ॥१९॥
कठिन शब्दार्थ - दगतीरंसि - जल के तट पर, तुयट्टित्तए - सोना, णिद्दाइत्तए - नींद लेना, पयलाइत्तए - ऊंघना (प्रचला संज्ञक अल्पनिद्रा), धम्मजागरियं - धर्म जागरिकाधर्मचिन्तन करना, झाणं - ध्यान।
भावार्थ - १९. साधु-साध्वियों को जल के तट पर खड़े होना, बैठना, सोना, नींद लेना, ऊंघना, अशन, पान, खाद्य आदि आहार ग्रहण करना, उच्चार-प्रस्रवण - मल-मूत्र, श्लेष्म, नासामल आदि का परित्याग करना, स्वाध्याय करना, धर्मचिंतन करना, ध्यान की आराधना
अभ्यास करना तथा कायोत्सर्ग में स्थित होना - कायोत्सर्ग करना नहीं कल्पता। . ...विवेचन - इस सूत्र में प्रयुक्त 'दक' (दग) शब्द के मूल में 'उद' शब्द है। 'उद' के
आगे स्वार्थिक 'क' प्रत्यय के जुड़ने से उदक बनता है। "भाषाविज्ञान" की मुख-सुख - उच्चारण सौविध्यमूलक प्रवृत्ति के कारण अधिकांशतः उदक का ही प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। भाषाविज्ञान में शब्दों के संक्षिप्तीकरण की भी एक विशेष विद्या है। जिससे शब्द का अर्थ नहीं बदलता, बहुलांश नहीं बदलता, कुछ भाग बदल जाता है। ___यहाँ जलतीर का आशय नंदी, सरोवर, वापि, तड़ाग आदि के किनारे से है। आज तो विज्ञान के कारण घर-घर में जल प्राप्त है। किन्तु प्राचीन काल में इन्हीं स्थानों से जल की आवश्यकताओं की पूर्ति होती थी। इन स्थानों पर उपर्युक्त कार्यों के निषिद्ध होने के कारण देते हुए भाष्य, चूर्णि एवं नियुक्ति में विस्तृत चर्चा आई है, जिसका सारांश यह है -
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org