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बृहत्कल्प सूत्र - प्रथम उद्देशक xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx************************************* बना है। "प्रकर्षण स्तारः, विस्तारः - विस्तरणं व यस्य स प्रस्तारः" - जिसको विशेष रूप से फैलाकर ताना जाय वह प्रस्तार संज्ञक है। यह पर्दे का सूचक है।
शील, रक्षा आदि की दृष्टि से यह विधान आवश्यक माना गया है।
साधुओं के लिए कपाट रहित स्थान में भी रहना कल्पता है परन्तु रात्रि में यदि आवश्यक हो तो तिर्यञ्च प्राणियों आदि की बाधा की आशंका से पर्दा लगाया जा सकता है।
ऐसे स्थानों पर साध्वियों के रात्रिकालीन प्रवास के संदर्भ में अन्य जागरूकताओं के संदर्भ में भाष्यकार ने जो विवेचन किया है, वह पठनीय है।
साधु-साध्वी को घटीमात्रक रखने का विधि-निषेध कप्पइ णिग्गंथीणं अंतोलित्तयं घडिमत्तयं धारेत्तए वा परिहरित्तए वा॥१६॥ णो कप्पइ णिग्गंथाणं अंतोलित्तयं घडिमत्तयं धारेत्तए वा परिहरित्तए वा॥१७॥
कठिन शब्दार्थ - अंतोलित्तयं - भीतर से लेप किया हुआ - चिकना, घडिमत्तयं - घटीमात्रक - लघु आकार का घट रूप पात्र, परिहरित्तए - गृहीत करना। - भावार्थ - १६. साध्वियों को भीतर से लिपा हुआ - चिकना किया हुआ, छोटे घड़े के आकार का पात्र धारण करना, रखना कल्पता है।
१७. साधुओं को अन्दर से लिप्त किया हुआ घटीमात्रक (उपर्युक्त पात्र) रखना और उपयोग करना नहीं कल्पता है।
विवेचन - इस सूत्र में 'मात्रक' शब्द का प्रयोग छोटे मुख वाले पात्र के लिए हुआ है। विशेषतः मात्रक उच्चार-प्रस्रवण एवं कफ आदि के लिए प्रयुक्त होता है। औदारिक शरीर के लिए ये आवश्यक हो सकते हैं। अहिंसा प्रधान चर्या के कारण स्वच्छंद रूप में उच्चारप्रस्रवण आदि का विधान नहीं है, अतः वहाँ ऐसे पात्रों की प्रयोजनीयता है।
- साध्वियों के उनके वासनाविरहित, ब्रह्मचर्यमूलक, जीवन में ऐसे पात्र विकारोत्पादक नहीं होते। अत: वे अविहित नहीं है। पात्र के अन्तर्लेप का जो उल्लेख किया गया है, वह इसलिए कि वैसा पात्र प्रस्रवण आदि को तत्काल सोख नहीं पाता इसलिए उसके भीतर आर्द्रता नहीं आती, जीवोत्पत्ति का हेतु भी नहीं बनता।
साधुओं के लिए छोटे मुँह वाले घटीमात्रक रखने का जो निषेध किया गया है, उसका आशय यह है कि पात्र के छोटे मुँह के कारण कदाचन कायात्मक कुत्सित भावना न आ जाए।
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