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बृहत्कल्प सूत्र
विवेचन
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इस सूत्र में प्रयुक्त 'आपण' शब्द "आ . समन्तात् क्रीयन्ते विक्रीयन्ते च वस्तूनि यत्र तद् आपणम्" - जहाँ वस्तुओं का व्यापक रूप में क्रय और विक्रय होता है, उसे आपण कहा जाता है। इसके मध्य स्थित गृह या उपाश्रय आदि को आपणगृह कहा जाता है।
प्रथम उद्देशक
रथ्यामुख - 'रथ्या' शब्द रथ से बना है । रथ यहाँ सामान्यतः शकट आदि सभी यानवाहनों के लिए प्रयुक्त हुआ है । " रथानां शकटादियान - वाहनानां गमनागमनयोग्या वीथिः रथ्या" अर्थात् वह मार्ग जिससे यान- वाहनों का आनाजाना सुगम हो, उसे रथ्या कहा जाता है।
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" रथ्यामुख" का आशय उस भवन से है, जिसका द्वार ऊपर वर्णित मार्ग पर खुले । श्रृंगाटक - जिस प्रकार सिंघाड़े के तीन किनारे होते हैं, उसी प्रकार वह स्थान जहाँ से तीन रास्ते निकलते हों।
१४.
त्रिक तीन रास्तों के मिलने का स्थान ।
चतुष्क - चार रास्तों के मिलने का स्थान - चौक ।
चत्वर - जहाँ से छह या अनेक रास्ते निकलते हों।
अन्तरापण अन्तरापण का तात्पर्य हाट या बाजार के रास्ते से है।
इन-इन स्थानों पर बने हुए उपाश्रयों या भवनों में साध्वियों का रहना नहीं कल्पता । इस अकल्प्यता का कारण मुख्यतः स्त्री जीवन का निरापद न होना, संयमजीवितव्य की सुरक्षा में विशेष जागरूकता या सावधानी है, जहाँ अनेक प्रकार के लोगों का निर्बाध आवागमन होता रहता है। अतः दूषित विचारधारा के लोगों की कुदृष्टि की आशंका बनी रहती है। वैसी अवांछित स्थितियाँ न बन पाएँ, इस हेतु यह कल्प मर्यादा है।
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पुरुष होने के नाते साध्वियों की अपेक्षा साधुओं के लिए वैसे स्थान में रुकने में संयम विषयक विशेष बाधा आशंकित नहीं है। कोलाहल, हलचल आदि के कारण यदि साधुओं को भी अपने स्वाध्याय आदि करने में विघ्न प्रतीत हो तो उन्हें भी वैसे स्थानों में नहीं रहना चाहिए।
कपाटरहित स्थान में साधु-साध्वियों की प्रवास मर्यादा
णो कप्पइ णिग्गंथीणं अवंगुयदुवारिए उवस्सए वत्थए, एगं पत्थारं अंतो
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