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बृहत्कल्प सूत्र - प्रथम उद्देशक
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में पुरुष-स्त्री युगल, पशु-पक्षी युगल, काम-क्रीड़ारत दृश्य, नारी-सौन्दर्य के आकर्षक रूप इत्यादि का परिदर्शन दृष्टिगोचर होता है। आश्चर्य तो यह है कि देवस्थानों में भी इस प्रकार के चित्र पाए जाते हैं, जो परिहेय हैं। किसी भी कलाकार में यदि वासनात्मक भाव नियमित, संयमित या नियंत्रित न हो तो वह अपनी कलाकृति में उसका प्रस्तुतीकरण किए बिना रह नहीं सकता क्योंकि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से वैसा करने में उसे तृप्ति का अनुभव होता है। अत एव सूत्र में चित्रांकित भवन में रहने को अकल्प्य, प्रतिषेध्य कहा गया है।
सागारिक की निश्रा में प्रवास करने का विधान णो कप्पइ णिग्गंथीणं सागारिय-अणिस्साए वत्थए॥२२॥ कप्पइ णिग्गंथीणं सागारियणिस्साए वत्थए ॥२३॥ कप्पइ णिग्गंथाणं सागारियणिस्साए वा अणिस्साए वा वत्थए ॥२४॥
कठिन शब्दार्थ - सागारिय - सागारिक - श्रमणोपासक या सद्गृहस्थ, अणिस्साएअनिश्रा - बिना आश्रय के, णिस्साए - आश्रय में।
भावार्थ - २२. निर्ग्रन्थिनियों को सागारिक की अनिश्रा - बिना आश्रय के रहना नहीं कल्पता है।
२३. निर्ग्रन्थिनियों को सागारिक की निश्रा - आश्रय में रहना कल्पता है। २४. साधुओं को सागारिक - श्रमणोपासक की निश्रा या अनिश्रा में रहना नहीं कल्पता है।
विवेचन - व्रताराधना की दृष्टि से जैन धर्म में अनगार और सागार के रूप में दो क्रम हैं। "नास्ति अगारं यस्य स अनगारः" - जिसके अगार-घर न हो, जो गृहस्थ जीवन में न हो, प्रव्रजित, दीक्षित हो, उसे अनगार कहा जाता है। यह पंचमहाव्रतधारी साधु का सूचक है। "आगारेण सहितः सागारः" - जो गृहस्थ में रहते हुए अंशतः धार्मिक आराधना करता है, 'सागार' कहा जाता है। 'सागार' शब्द में इक प्रत्यय लगाने से सागारिक बनता है। सागार और सागारिक - दोनों एक ही भाव के ज्ञापक हैं। ... 'सागार' शब्द की एक व्युत्पत्ति और बनती है। "अगारेण सहितः सागारः" - . जो अगार सहित होता है उसे 'सागार' कहा जाता है। अगार' शब्द घर एवं 'आगार शब्द विकल्प या अपवाद के अर्थ में है। जो अपनी शक्ति को तोलता हुआ विविध आगारों या
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