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महामोहनीय कर्म-बन्ध के स्थान
१०३ kakkakakakakakakakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk बार-बार चुभोता हुआ अथवा दण्ड का प्रहार करता हुआ मारता है, वैसा करते हुए हंसता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है॥६॥
जो अपने दोषों को छिपाता है, माया - छल को माया से (ही) ढकता है, असत्य भाषण करता है और कपट पूर्वक सूत्रार्थ का गोपन करता है- मिथ्या अर्थ प्रयुक्त करता है, वह महामोह का उपार्जन करता है।७॥ ___ जो किसी निर्दोष व्यक्ति पर झूठा आपेक्ष करता है, अपने द्वारा किए गए दूषित कर्मों का "तूने ही ऐसा किया है" ऐसा कहता हुआ आरोप करता है, वह महामोहनीय कर्म का संचय करता है ॥८॥
जो पुरुष जानता - बूझता हुआ भी परिषद् में सत्य-मिथ्यायुक्त-मिश्रित वचन बोलता है, चतुर्विध धर्म संघ और गण में भेद उत्पन्न करने की दुर्बुद्धि लिए रहता है, वह महामोहनीय कर्म का उपार्जन करता है॥९॥ .
शासक के गुणों से रहित राजा का मंत्री उसकी रानियों के साथ दुष्कर्म करता है, राजा का तिरस्कार करता हुआ उसे पदच्युत कर देता है, स्वयं शासन हथियाता हुआ प्रतिकूल वाणी द्वारा उसका तिरस्कार करता है, उसके लिए सारे सुखों और राज्याधिकारों का नाश करता हुआ समस्त अधिकार स्वाधीन - अपने अधीन करता है, वह महामोहनीय बंध उपार्जित
करता है॥१०॥ ... जो वस्तुतः बालब्रह्मचारी नहीं होता हुआ भी अपने आपको बालब्रह्मचारी घोषित करता है तथा. स्त्रीविषयक भोगों में लोलुप बना रहता है, वह महामोह कर्म का संचय करता है॥११॥
ब्रह्मचारी नहीं होता हुआ भी जो "मैं ब्रह्मचारी हूँ" ऐसा कथन करता है, वह गायों के मध्य बेसुरा आलाप करते - रेंकते हुए गर्दभ के सदृश है। वह मूर्ख अपनी आत्मा का अहित करता है; छलपूर्ण असत्य भाषण करता है एवं स्त्रीविषयक कामभोगों में लुब्ध रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है॥१२॥ .. जो जिसके आश्रय में रहता है, जिसके सहारे जीवन निर्वाह करता है, जिसकी प्रभुता
और कीर्ति के बल पर जो आगे बढ़ा है, वह यदि उस आश्रयदाता का धन हड़पने का मन में लोभ लिए रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है॥१३॥
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