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महामोहनीय कर्म-बन्ध के स्थान
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जो बहुश्रुत - विशिष्ट ज्ञानाध्येता न होते हुए भी स्वयं को बहुश्रुत स्वाध्यायपरायण एवं शास्त्रज्ञ कहता है, वह महामोहनीय कर्म का संचय करता है ॥२३॥
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जो वस्तुतः तपस्वी नहीं है किन्तु अपने आपको तपस्वी के रूप में प्रस्तुत करता है, वह सभी लोगों में सबसे बड़ा चोर है, महामोहनीय कर्म का उपार्जनकर्ता है ॥२४॥
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जो साधु सक्षम, समर्थ होते हुए भी ग्लान मुनि की यह सोचते हुए कि भविष्य में मेरा यह प्रत्युपकार नहीं कर पायेगा ( यह सोचता हुआ) सेवा नहीं करता, वह शठ- निर्दयी, कपटनिपुण, कालुष्याकुलचित्त, आत्म- अहितकारी होता है, महामोह कर्म को संचीर्ण करता है ॥२५॥
जो सर्वतीर्थ - साधु-साध्वी - श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध धर्म तीर्थ में भेद उत्पन्न करने हेतु बार-बार कलहोत्पादक, प्रवादपूर्ण बातें करता है, वह महामोहनीय कर्म का अधिकारी होता है ॥२६॥
जो आत्मश्लाघा एवं कीर्ति हेतु तथा मित्र जन के प्रिय हेतु बार-बार अधार्मिक योग - तंत्र-मंत्र - उच्चारण वशीकरणात्मक प्रयोग करता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध
करता है ॥२७॥
जो व्यक्ति देव या मनुष्य संबंधी कामभोगों की अतृप्ति से तीव्र अभिलाषा करता है, वह महामोह कर्म का बंध करता है ॥२८ - ॥
जो व्यक्ति देवों की ऋद्धि, कान्ति, कीर्ति, सुन्दरता, शारीरिक-मानसिक शक्ति की निन्दा करता है, वह महामोहनीय कर्म संचित्त करता है ॥ २९ ॥
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जो अज्ञानी जिनेन्द्र देव की पूजा-अर्चा- सम्मान - सत्कार की तरह स्वयं आदर-सत्कार चाहता हुआ, देव, यक्ष और गुह्यक आदि को न देखता हुआ भी देखने का (मिथ्या) आलाप करता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है ॥ ३० ॥
ये मोह से उत्पन्न होने वाले, अशुभ कर्म फलप्रद, चित्त को विभ्रान्त करने वाले प्रतिपादित हुए हैं। आत्मगवेषणा आत्मपर्यालोचना करता हुआ भिक्षु इनका परित्याग कर संयममय
जीवन में विहरणशील रहे ॥ १ ॥
प्रव्रज्याकाल से पूर्व अपने द्वारा किए हुए कृत्य - अविहित का विधान तथा अकृत्यसावद्य आचरण को जानता हुआ, उनको वमित करता हुआ हृदय से सर्वथा अपगत करता हुआ, उन्हीं (संयममूलक कृत्यों) का सेवन करे, जिनसे शुद्धाचारयुक्त बना रहे ॥ २ ॥
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