________________
देवलोक में स्व-पर देवी भोगैषणा निदान
१३३ wintirituttarakarmiritikritikdaikikikarinakamaAAAAAAAAAA परियारेइ से णं ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ३ तं चेव जाव पुमत्ताए पच्चायाइ जाव किं ते आसगस्स सयइ?॥२६॥
तस्स णं तहप्पगारस्स पुरिसजायस्स तहारूवे समणे वा माहणे वा जाव पडिसुणिजा? हंता ! पडिसुणिज्जा, से णं सहहेजा पत्तिएज्जा रोएजा? णो इणद्वे समढे अभविए णं से तस्स धम्मस्स सहहणयाए ३ से य भवइ महिच्छे जाव दाहिणगामिए णेरइए आगमेस्साणं दुल्लभबोहिए यावि भवइ, एवं खलु समणाउसो ! तस्स णियाणस्स इमेयारूवे पावए फलविवागे जं णो संचाएइ केवलिपण्णत्तं धम्मं सहहित्तए वा पत्ति[य]इत्तए वा रोइत्तए वा॥२७॥
कठिन शब्दार्थ - अणितिया - अनित्य, असासया - अशाश्वत, सडणपडणविद्धंसणधम्मा - स्वभावतः सड़ने-गलने और ध्वस्त होने वाले, दुरूवउस्सासणिस्सासा - दुर्गन्धित श्वासोच्छ्वास युक्त, दुरंत - नित्य देहस्थितता के कारण कष्टदायक, मुत्तपुरीसपुण्णा - मल-मूत्र पूर्ण, वंतासवा - वमन द्वार, पच्छा - पश्चात् (मृत्यु के अनंतर), अवस्सं - अवश्य, विप्पजहणिज्जा - परित्याज्य हैं, अभिजुंजिय - अभियुज्य - स्वायत्त कर, परियारेंति - काम भोगों का सेवन करते हैं, अप्पणो - अपनी, विउव्विय - विकुर्वित कर (विकुर्वणा द्वारा उत्पन्न कर), अप्पणिज्जियाओ - अपनी (स्वयं की), सद्दहेज्जा - श्रद्धा कर सकते हैं, पत्तिएज्जा - प्रतीति कर सकते हैं, रोएज्जा - रुचि कर सकते हैं।
- भावार्थ - आयुष्मान् श्रमणो! मैंने जिस धर्म का प्रतिपादन किया है, वही निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है, इत्यादि वर्णन पूर्वानुसार है।
इस धर्म की ग्रहण-आसेवन रूप साधना में समुद्यत साधु या साध्वी जब भूख, प्यास सहन करते हैं यावत् उत्पन्न कामभोगों का (संयम बल से) पराक्रमपूर्वक सामना करते हुए मनुष्य संबंधी काम-भोगों में निर्वेद - वैराग्य को प्राप्त करते हैं और चिन्तन करते हैं -
__ ये मनुष्य जीवन संबंधी काम-भोग निश्चय ही अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत, सड़न-गलन एवं विनश्वर स्वभाव वाले हैं। मल-मूत्र-कफ-शिंघाणक-वमन-पित्त-शुक्र एवं शोणित से उद्भूत हैं। दुर्गन्धित श्वास-निःश्वास एवं मल-मूत्र आपूरित हैं। वात, पित्त एवं कफ के द्वार हैं। इस प्रकार पश्चात् या पहले अवश्य त्याज्य है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org