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साधु साध्वियों के लिए फल ग्रहण विषयक विधि - निषेध
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मूले कंदे खंधे, तया य साले पवाल पत्ते य । पुप्फे फले य बीए, पलंब सुत्तम्मि दस भैया ॥ बृहत्कल्प उ० १, भाष्य गाथा ८५४. उपरोक्त प्राचीन और प्रामाणिक व्याख्या भाष्य टीका आदि में आज भी उपलब्ध है। इसके विपरीत बाद के कुछ अर्थकारों ने 'तालप्रलंब' का अर्थ मात्र केला ही कर दिया जो सर्वथा अनुचित है। वनस्पति के १० ही प्रकार के भेदों में अनेक वनस्पतियाँ विकृत आकृति वाली होती है जैसे मूल में मूला आदि, कंद में शक्करकंद, गाजर आदि और भी बैंगन, भिंडी, करेला, तरकाकड़ी, केला आदि फल के भेद तथा और भी जो-जो आकृति दोष से युक्त और आकृति दोष रहित वनस्पति होती हैं वे सभी इन १० भेदों में समाविष्ट हो जाती हैं। आगमकार साधु और साध्वियों को इन वनस्पतियों के कल्प अकल्प की विधि को 'तालप्रलंब ' के नाम से पाँच सूत्रों के द्वारा बताते हैं यहाँ बृहत्कल्प सूत्र के सूत्र नं० १ का अर्थ व मूल णो कप्पड़ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा आमे तालपलम्बे अभिण्णे पडिगाहित्तए ||१ ॥
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अर्थ - नहीं कल्पता है साधु साध्वी को कच्चा 'तालप्रलंब' अभिन्न (अर्थात् जो अग्नि पर पका नहीं है ऐसा 'तालप्रलंब' अर्थात् मूल से फल पर्यंत कोई भी वनस्पति जो अभिन्न हो अर्थात् चटनी आदि के रूप में भेदन नहीं होने से, अग्निपक्व बिना नहीं लेना ।
कप्पड़ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा आमे तालपलम्बे भिण्णे पडिगाहित्तए ॥२ ॥
अर्थ - साधु साध्वी को कच्चा 'तालप्रलंब' भिन्न (अर्थात् दसों भेद वाली वनस्पत जो अग्नि पर पकी हुई नहीं है परन्तु चटनी आदि के रूप में भिन्न हो चुकी है जैसे कच्ची मिर्ची, धनिया, पोदिना आदि को पीस कर चटनी बनाई वह भिन्न कच्चा 'तालप्रलंब ' है ) जो साधु साध्वी दोनों को लेना कल्पता है।
कप्पड़ णिग्गंथाणं पक्के तालपलम्बे भिण्णे वा अभिण्णे वा पडिगाहित्तए ॥ 3॥
अर्थ - साधुओं को पक्का 'तालप्रलंब' भिन्न' या अभिन्न ( अर्थात् अग्नि आदि से शस्त्र परिणित हो जाने पर कोई भी वनस्पति टुकड़े रूप हो या आखी (साबुत) हो ) अचित्त होने के कारण लेना कल्पता है। जैसे उबाले हुए मक्की के भुट्टे, शक्करकंद, केर आदि साबुत हो तो भी अचित्त होने से ग्राह्य है । यहाँ 'अग्नि आदि' में आदि शब्द से अन्य शस्त्र
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