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बृहत्कल्प सूत्र - प्रथम उद्देशक
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परिणित भी लिया जा सके। जैसे - नमक से पकाया हुआ नीम्बू, पीपल, अथाणा की मिर्च आदि जो भी शस्त्र परिणित है वे सब पक्व ही गिने जाते हैं, इस सूत्र के द्वारा कितनेक लोग केले को ग्राह्य बताते हैं पर मूल में पक्व शब्द दिया है तो बिना शस्त्र परिणिति ही पूरा केला बीज युक्त ग्रहण करना कैसे सिद्ध होगा? उसके अचित्त होने का शस्त्र तो लगा ही नहीं। कोई डाली पर पका हुआ है, ऐसा कहे तो भी उचित नहीं, क्योंकि डाल पर तो अनेक फल पकते हैं। पर अखण्ड लेना नहीं कल्पे, भिन्न तो होना ही चाहिए क्योंकि बीज तो अंदर रहते हैं और फल के भिन्न हुए बिना बीज निकलता नहीं है तथा १० भेदों में बीज भी एक प्रकार का स्वतंत्र तालप्रलंब है वह भी अचित्त हुए बिना नहीं कल्पे। ऐसी स्थिति में प्रत्यक्ष सचित्त केले का भक्षण करना त्यागी संतों को उचित नहीं। . णो कप्पड़ णिग्गंथीर्ण पक्के तालपलम्बे अभिण्णे पडिगाहित्तए॥ ४॥ - अर्थ - साध्वी को पक्व तालप्रलंब अभिन्न (जो-जो विकृति दोष युक्त आकृति वाली होने से आखी भिंडी, आखी मिर्ची, बैंगन, भुट्टे, शक्करकंद, करेला आदि के टुकड़े नहीं हो तो साध्वी को उसे) लेना नहीं कल्पे। - कप्पड णिग्गंथीणं पक्के तालपलम्बे भिण्णे पडिगाहित्तए, से वि य विहिभिण्णे, णो चेव णं अविहिभिण्णे॥ ५॥
__ अर्थ - साध्वी को पक्का ताल पलंब.विधि भिन्न हो (एक ही तरह के टुकड़े अविधि भिन्न कहलाते हैं या बड़े-बड़े टुकड़े अविधि भिन्न कहलाते हैं, विधि भिन्न छोटे-छोटे टुकड़े आदि हो) और शस्त्र परिणित हो तो लेना कल्पता है।
इस प्रकार मूल से लेकर फल पर्यन्त सभी वनस्पतियों का समावेश होने से तालप्रलंब का व्यापक अर्थ भाष्यकार ने किया है तथा वर्तमान में भी विद्वानों ने 'तालप्रलंब' का अर्थ केला करने वालों को अप्रामाणिक घोषित किया है।
तालप्रलब का अर्थ केला प्रामाणिक नहीं है - श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी से प्रकाशित और पंडित श्री दलसुखमालवणिया तथा डॉ० श्री मोहनलाल मेहता द्वारा सम्पादित पुस्तक जैन साहित्य का इतिहास भाग २ पृष्ठ २३७ में बृहत्कल्प सूत्र का परिचय देते हुए पाद, टिप्पण २ में लिखा हुआ है कि - "हिन्दी व गुजराती अनुवादों में इस सूत्र का अर्थ लंबी आकृति वाला किया है प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि इसमें ताल का अर्थ केला व. प्रलंब का अर्थ लंबी आकृति वाला किया है, जिसको उपरोक्त दोनों पंक्तियों ने
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