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९ साधु साध्वियों के लिए गाँव आदि में प्रवास करने की कालमर्यादा *AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA
भावार्थ - साधुओं को प्राकार युक्त और प्राकार से बहिर्वर्ती - परकोटे के भीतर बसे हुए या उसके बाहर बसे हुए ग्राम, नगर, खेट, कर्बट, मडंब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, निगम, आश्रम, सन्निवेश, संबाध, घोष, अंशिका, पुटभेदन तथा राजधानी में हेमन्त तथा ग्रीष्म ऋतु में एक मास तक प्रवास करना कल्पता है।
साधुओं को परकोटे के भीतर तथा उसके बाहर बसे हुए ग्राम यावत् राजधानी में हेमन्त एवं ग्रीष्म ऋतु में दो मास तक अर्थात् परकोटे के अन्तर्वर्ती एक मास तथा बहिर्वर्ती ग्रामादि में एक मास - कुल दो मास रहना कल्पता है। भीतर रहते हुए साधु द्वारा भीतर भिक्षाचर्या करना तथा बाहर रहते हुए बाहर भिक्षाचर्या करना कल्पता है।
साध्वियों को परकोटे के भीतर तथा बाहर अवस्थित ग्राम यावत् राजधानी में हेमन्त या ग्रीष्म ऋतु में दो मास प्रवास करना कल्पता है। ___ साध्वियों को परकोटे के भीतर तथा बाहर ग्राम यावत् राजधानी में हेमन्त एवं ग्रीष्म ऋतु में चार मास पर्यन्त रहना कल्पता है अर्थात् दो मास परकोटे के भीतर बसे हुए तथा दो मास बाहर बसे हुए ग्रामादि में। भीतर प्रवास करते हुए भीतर भिक्षा तथा बहिर्वर्ती ग्रामादि में प्रवास करते हुए बाहर भिक्षाचर्या करना कल्पता है।
विवेचन - दीक्षा का पर्यायवाची एक शब्द प्रव्रज्या है। 'प्र' उपसर्ग, 'व्रज्' धातु, 'क्यप्' एवं 'टाप' प्रत्यय के योग से प्रव्रज्या शब्द बनता है। 'व्रज्' धातु गमन करने या चलने के अर्थ में है। निर्ग्रन्थ या साधु के लिए सतत विहरणशील या पर्यटनशील जीवन को लक्षित कर साधु-दीक्षा को प्रव्रज्या कहा गया है। प्रव्रज्या का दीक्षा अर्थ लक्षणा द्वारा निष्पन्न होता है। बहती नदी और विचरणशील संत निर्मल होते हैं। यह लोकोक्ति साधु जीवन की पावनता की द्योतक है। कहीं एक ही स्थायी निवास से अनेकविध रागात्मक, मोहात्मक स्थितियाँ बनना आशंकित हैं। अत एव जैन साधु-साध्वियों के किसी स्थान में प्रवास के संबंध में मर्यादाएँ निर्धारित की गई हैं। केवल श्रावण, भाद्रपद, आश्विन एवं कार्तिक - इन चार महीनों में, जो प्रावृट् प्रधान या वर्षा की मुख्यता युक्त माने जाते हैं, साधु-साध्वियों का (किसी एक स्थान या) चातुर्मासिक प्रवास विहित है। क्योंकि उस समय अप्काय, वनस्पतिकाय की बहुलता के कारण अधिक हिंसा की आशंका रहती है। अवशिष्ट काल में शास्त्रानुमोदित मर्यादापूर्वक विहरणशील रहते हैं।
भारत में ऋतुओं का विभाजन छह या तीन - यों दो प्रकार से किया गया है।
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