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साधु साध्वियों के लिए फल ग्रहण विषयक विधि-निषेध
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प्रथम एवं द्वितीय सूत्र में कच्चे (जो वृक्षादि पर नहीं पके हैं) एवं अग्नि रूप शस्त्र से भी नहीं पके हैं उनका ग्रहण होना संभव है।
शस्त्र परिणत करने पर भी सब फल अचित्त हो जाएँ, ऐसा नहीं है। क्योंकि उनमें बीज आदि विद्यमान रहते हैं । अतः उबालना, पकाना आदि अपेक्षित होता है। वैसा होने पर वह भावपक्व कहा जाता है।
इस सूत्र में प्रयुक्त भिन्न, अभिन्न, विधिभिन्न और अविधिभिन्न
शब्द विशेष अर्थ के द्योतक हैं।
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"भेदेनयुक्तं भिन्नम् ” जिसके खण्ड-खण्ड किए गए हों, उसे भिन्न कहा जाता है। चाकू आदि से वैसा किए जाने से वह शस्त्रपरिणत कहा जाता है। जो इस रूप में नहीं होता वह अभिन्न या शस्त्र अपरिणत है ।
ये चार
विधिभिन्न का अर्थ विधिवत् - विधिपूर्वक या छोटे-छोटे खण्डों के रूप में विभक्त किया हुआ है। जिन खण्डों को वापिस पूर्व जैसे आकार में नहीं किया जा सके उनको यहाँ पर विधिभिन्न कहा गया है। इस पद का प्रयोग विशेषतः साधुओं के संदर्भ में हुआ है। कदली, मूली, गाजर आदि फल या कंदमूल का साध्वियों के लिए केवल शस्त्रपरिणत या खण्ड रूप में या भिन्न होना ही पर्याप्त नहीं है वरन् विधिभिन्न होना - छोटे-छोटे टुकड़ों के रूप में खण्डित होना आवश्यक है। क्योंकि वैसा न होने पर आकार विशेष के कारण वे मन में विकारोत्पादक हो सकते हैं। काम वासना वस्तुतः दुर्जेय है । अत एव ब्रह्मचर्य की अखण्ड साधना में निरत साधिका के समक्ष ऐसा थोड़ा भी सांकेतिक प्रसंग न बने, जो उसके मन में दुर्वासना जगा सके। मन का चांचल्य तब तक बना रहता है जब तक साधक चिन्तन, मनन, निदिध्यासन, तपश्चरण, ध्यान, व्युत्सर्ग इत्यादि द्वारा अपने आपको पूर्णतः संयत, नियंत्रित, आत्मगत नहीं बना लेता ।
कितना सटीक कहा गया है
मत्तेभकुंभदलने भुविसंति शूराः,
केचिद् प्रवृत्त मृगराज वधेऽपि दक्षाः ।
किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसह्य,
कंदर्पदर्पदलने विरला मनुष्याः ॥
मदोन्मत्त हाथियों के मस्तक को विदीर्ण कर डालने में सक्षम शूरवीर हो सकते हैं। ऐसे
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