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बृहत्कल्प सूत्र - प्रथम उद्देशक
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षट् ऋतु क्रम में - चैत्र-वैशाख - वसन्त, ज्येष्ठ-आषाढ़ - ग्रीष्म, श्रावण-भाद्रपद - 'प्रावृट् (वर्षा), आश्विन-कार्तिक - शरद, मार्गशीर्ष-पौष - हेमन्त तथा माघ-फाल्गुन - शिशिर - ये छह ऋतुएँ हैं।
ऋतुत्रय क्रम में चैत्र-वैशाख-ज्येष्ठ-आषाढ़ - ग्रीष्म, श्रावण-भाद्रपद-आश्विन-कार्तिकप्रावृट् और मार्गशीर्ष-पौष-माघ-फाल्गुन - हेमन्त -- ये तीन ऋतुएँ हैं।
यहाँ ग्रीष्म और हेमन्त का उल्लेख तीन ऋतुओं के क्रमानुसार हुआ है।
इसका तात्पर्य यह है कि वर्षा ऋतु के चार मास के अतिरिक्त इन आठ महीनों में साधु या साध्वी का किसी एक ही स्थान पर स्थायी प्रवास करना नहीं कल्पता। किसी एक गाँव या नगर आदि बस्ती में साधु एक मास तक तथा साध्वी दो मास तक ठहर सकती है। यहाँ पर मास शब्द से चंद्रमास को समझना चाहिए। वह मास २९॥ दिनों का होता है।
इसमें इतना स्पष्टीकरण और किया गया है कि यदि कोई ग्राम परकोटे के भीतर बसा हो और परकोटे के बाहर भी बस्ती हो तो वहाँ दो स्थानों का कल्प स्वीकृत है। किन्तु यह विशेषता है कि भिक्षा अन्दर रहते हुए अन्तर्वर्ती स्थान से तथा (परकोटे के) बाहर रहते हुए बहिर्वर्ती स्थान से भिक्षा लेना शास्त्रानुमोदित होता है।
इसका आशय यह है - अन्तर्वर्ती स्थान में प्रवास करने वाले साधु-साध्वियों का बहिर्वर्ती स्थान के लोगों से संपर्क न रहे तथा बहिर्वर्ती स्थान में वास करने वाले साधुसाध्वियों का अन्तर्वर्ती स्थानवासी लोगों से रोजमर्रा का संपर्क न बने। ___ साधुओं की अपेक्षा साध्वियों को किसी एक स्थान पर दुगुने समय तक प्रवास करने का जो कल्प निर्धारित किया गया है, उसका अभिप्राय यह है कि दैहिक संहनन, शरीर बल, विविध काल की दैहिक स्थितियाँ - इत्यादि को दृष्टि में रखते हुए उनके संयम जीवितव्य की सुरक्षापूर्ण संवर्द्धना हेतु यह आवश्यक माना गया। __ प्रस्तुत सूत्र में साधु-साध्वियों के प्रवास के संदर्भ में ग्राम आदि स्थानों का जो उल्लेख हुआ है, वह तत्कालीन आवास निर्माण व्यवस्था का सूचक है। बृहत्कल्प भाष्य में इन स्थानों के संदर्भ में विस्तार से विवेचन किया गया है। उस समय की व्यवस्था के अनुसार
• बृहत्कल्प भाष्य, गाथा-१०८९-१०९३
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