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... निदानरहित की मुक्ति
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यद्यपि एक मोक्षार्थी पुरुष या मोक्षार्थिनी नारी सांसारिक भोग, काम-सुख आदि को निःसार एवं परिहेय मानकर सर्व सावद्यवर्जनमूलक भिक्षुजीवन स्वीकार करते हैं, किन्तु आखिर वे हैं तो मानव ही। चिरन्तन संस्कारवश कभी-कभी परिस्थितियों के कारण उनके मन में, वर्तमान जीवन में तो नहीं वरन् आगामी जन्म में भोग प्राप्ति की आन्तालसा उभर आती है और वे मन में तदनुरूप निदान - संकल्प करते हैं कि उनकी संयत साधना का फल इन्द्रिय भोगों के रूप में उन्हें प्राप्त हो। इस दशा के प्रसंग में वर्णित राजा श्रेणिक और महारानी चेलणा का अपने राजसिक, विपुल, आकर्षक, मोहक वैभव के साथ भगवान् महावीर स्वामी के दर्शन-वंदन तथा धर्मोपदेश-श्रवण हेतु आने का जो प्रसंग बनता है, उससे कतिपय साधुसाध्वियों के मन में, भावी जन्म में उसी प्रकार के अत्यधिक, विविध भोगों को प्राप्त करने का मन:संकल्प उत्पन्न होता है।
कतिपय साधु-साध्वियों के मन में देवलोक में प्राप्य विविध भोगों की तीव्र उत्कंठा, उत्सुकता उत्पन्न होती है, वे अनेक रूपों में, जैसा वर्णित हुआ है, एतदर्थ मन में निदान करते हैं। उनमें अब्रह्मचर्यात्मक सुखों के भिन्न रूप में प्राप्त करने की आकांक्षाओं का जो वर्णन हुआ है, उससे यह स्पष्ट है कि इन्द्रिय भोगों में यह मैथुन सेवनात्मक भोग सर्वाधिक आकर्षक हैं, अध:पतन का मुख्य हेतु हैं। मैथुन-त्याग के लिए ब्रह्मचर्य शब्द का जो प्रयोग हुआ है, वह बड़ा गहन अर्थ लिए हुए है। 'ब्रह्मणि - परमात्मनिचयं - चरणशीलत्वंब्रह्मचर्यम्' बहिरात्म भाव से अन्तरात्म भाव में आते हुए परमात्मभाव की आराधना में उद्यमशील होना ब्रह्मचर्य है। इसमें सबसे अधिक बाधक या विघ्नोत्पादक मैथुन सेवन है। इसीलिये ब्रह्मचर्य में - परमात्मोपासना में उसकी अनन्य बाधकता मानते हुए उसे अब्रह्मचर्य कहा गया है, क्योंकि काम-भोग लोलुप व्यक्ति विवेकान्ध बन जाता है। उसे विषय वासना के अतिरिक्त कुछ सूझता तक नहीं। ___ "भोगा न भुक्ता, वयमेव भुक्ताः " *- भोगों को हमने नहीं भोगा, भोगों ने हमको भोग डाला - नष्ट कर डाला, योगिवर्य भर्तृहरि का यह कथन बड़ा ही सार्थक है।
* वैराग्य शतक, श्लोक-७
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