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निदानरहित की मुक्ति *aaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaat
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इस लोक के लिए - ऐहिक, भौतिक, सुखोपभोग के लिए पारलौकिक - स्वर्ग संबंधी दैवी भोगों के लिए, कीर्ति, यश, प्रशस्ति, प्रतिष्ठा आदि लौकैषणामूलक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु तपोमय साधना नहीं करनी चाहिए। अर्थात् इन उद्देश्यों को लेकर तपश्चरण करना सिद्धान्त विरुद्ध है। कर्मनिर्जरा के अतिरिक्त और किसी भी लक्ष्य की पूर्ति हेतु तपश्चरण नहीं करना चाहिए।
यह पाठ एक मात्र मोक्षात्मक लक्ष्य की परिपूर्ति के अनन्य हेतु - कर्म निर्जरण या कर्मक्षय के लिए ही साधक को मार्गदर्शन देता है। यहाँ जिन प्रयोजनों को त्याज्य कहा गया है, प्रस्तुत आगमगत दशम दशा में वे ही निदान सर्वथा परिहेय सिद्ध होते हैं। साधक के लिए वे सर्वथा अग्राह्य, अस्वीकार्य और अनंगीकरणीय हैं।
इस विवेचन का सारांश यह है कि वैराग्य, संयम, स्वाध्याय, ध्यान आदि सभी आध्यात्मिक उपक्रम सीधे आत्मा के परम लक्ष्य के साथ जुड़े रहने चाहिए, जो सर्वांशतः कर्मक्षय पर ही निर्भर हैं।
॥ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र की दशवी दशा समाप्त॥
|| दशाश्रुत स्कन्ध सूत्र समाप्त।
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