________________
१३२
दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र - दशम दशा kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk नहीं होता क्योंकि वह महातृष्णा युक्त यावत् दक्षिणवर्ती नरकगामी होता है यावत् दुर्लभबोधि होता है - सम्यक्त्व रूपी धर्म को सुनने का अवसर भी उसे नहीं मिलता। .. .
अतः इस प्रकार के निदान रूप फल का ऐसा ही पापकारी फल होता है, जिससे वह केवलिप्ररूपित धर्म को भी नहीं सुन सकता। .
विवेचन - उपर्युक्त चार निदानों में मनुष्य संबंधी उत्कृष्ट रस के भोगों का निदान समझना चाहिए। उनके फलस्वरूप सम्यक्त्व की भी प्राप्ति नहीं होती है। मंद रस का निदान होने पर उस निदान के फलने के बाद सम्यक्त्व की प्राप्ति भी हो सकती है। जैसे - ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को हुई। मंदतर रस का निदान होने पर उसके फलने के बाद सम्यक्त्व एवं संयम की प्राप्ति भी हो सकती है। जैसे - द्रौपदी को संयम की प्राप्ति हुई।
देवलोक में स्व-पर देवी भोगैषणा निदान एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते, इणमेव णिग्गंथे पावयणे तहेव, जस्स णं धम्मस्स णिग्गंथे वा णिग्गंथी वा सिक्खाए उवट्ठिए विहरमाणे पुरा-दिगिंछाए जाव उदिण्णकामभोगे विहरेजा, से य परक्कमेजा, से य परक्कममाणे माणुस्सेहिं कामभोगेहिं णिव्वेयं गच्छेजा, माणुस्सगा खलु कामभोगा अधुवा अणितिया असासया सडणपडणविद्धंसणधम्मा. उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणगवंतपित्त - सुक्कसोणियसमुब्भवा दुरूवउस्सासणिस्सासा दुरंतमुत्तपुरीसपुण्णा वंतासवा पित्तासवा खेलासवा (जल्ला०) पच्छा पुरं च णं अवस्सं विप्पजहणिजा, संति उड्डे देवा देवलोगंसि ते णं तत्थ अण्णेसिं देवाणं देवीओ अभिजुंजिय अभिमुंजिय परियारेंति, अप्पणो चेव अप्पाणं विउव्विय विउव्वित्ता परियारैति, अप्पणिज्जियाओ देवीओ अभिमुंजिय अभिमुंजिय परियारेंति, [संति] जइ इमस्स तवणियम जाव तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव वयमवि आगमेस्साणं इमाई एयारूवाई दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणा विहरामो, से तं साहु। एवं खलु समणाउसो
थिो वा णिग्गंथी वा णियाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइय अप्पडिक्कंते कालमासे कालं किच्चा अण्णयेरसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवइ, तंजहामएस महज्जुइएसु जाव पभासमाणे अण्णेसिं देवाणं अण्णं देविं तं चेव जाव
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org