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श्रमण भगवान् महावीर का समवसरण
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तए णं ते कोडुंबियपुरिसा सेणिएणं रण्णा भंभसारेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठतु? जाव हियया जाव एवं सामि( तह)त्ति आणाए विणएणं पडिसुणेति पडिसुणित्ता [एवं-ते ] सेणियस्स रण्णो अंतियाओ पडिणिक्खमंति पडिणिक्खमित्ता रायगिहं णयरं मज्झंमज्झेणं णिग्गच्छंति णिग्गच्छित्ता जाई इमाइं रायगिहस्स बहिया आरामाणि वा जाव जे तत्थ महत्तरगा अण्णया चिटुंति ते एवं वयंति जाव सेणियस्स रण्णो एयमटुं पियं णिवेएजा पियं भे भवउ दोच्चंपि तच्चं पि एवं वयंति वइत्ता जामेव दि( सं )सिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया॥२॥
कठिन शब्दार्थ - हट्टतुटु - हर्षित - संतुष्ट, हियया - हृदय में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं, सामित्ति - स्वामी - राजा, पडिसुणेति - सुनते हैं - स्वीकार करते हैं, मझमझेणंबीचोंबीच, णिग्गच्छंति - निकलते हैं, पाउब्भूया -- आए, तामेव - उसी, दिसिं - दिशा में, पडिगया - चले गए।. . . भावार्थ - राजा श्रेणिक बिंबसार द्वारा यों कहे जाने पर वे राजसेवक हर्षित एवं परितुष्ट हुए यावत् उनके हृदय आनंद से खिल उठे यावत् "स्वामिन् ! जैसी आपकी आज्ञा" यों कहकर राजा का आदेश शिरोधार्य किया। श्रेणिक राजा के अन्तःपुर से निकरः, राजगृह के बीचोंबीच होते हुए बहिर्वर्ती आराम - उपवन यावत् पूर्व वर्णित स्थानों के अधिकारी जहाँ थे, वहाँ उन्हें राजाज्ञा से अवगत कराया यावत् आज्ञानुरूप संपादित कर राजा की सेवा में (उसके लिए) प्रिय संवाद निवेदित करो। इस प्रकार दो-तीन बार कहा। वैसा कर (यावत्) जिस ओर से आए थे, उसी दिशा में वापस लौट गए।
.. प्रमण भगवान महावीर का समवसरण तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थयरे जाव गामाणुगामं दूइज्जमाणे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तए णं रायगिहे णयरे सिंघाडगतियचउक्कचच्चर एवं जाव परिसा णिग्गया जाव पज्जुवा( से )सइ॥३॥ ___कठिन शब्दार्थ - सिंघाडग - तीन मार्ग युक्त, तिय - तिराहा, चउक्क - चतुष्क - चार मार्ग युक्त, चच्चर - चत्वर - छह या अनेक मार्ग युक्त, पज्जुवासइ - पर्युपासनारत हुई।
भावार्थ - उस काल, उस समय आदिकर, तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर यावत् ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए यावत् अपनी आत्मा को संयम एवं तप से भावित करते हुए
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