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दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र - दशम दशा kakkakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkart जंगली काष्ठ के विक्रय केन्द्र, दब्भकम्मंताणि - दर्भ के आसनादि के विक्रय स्थान, महत्तरगा - प्रमुखजन, अण्णया - अन्य कोई, चिटुंति - स्थित होते हैं।
भावार्थ - देवानुप्रियो! तुम जाओ और राजगृह नगर के बाहर आराम, उद्यान, कलादीर्घाएं, विश्रामगृह, देवायतन, जलप्रतिष्ठान, हट्टशालाएं, क्रय-विक्रय केन्द्र, भोजनशालाएँ या चूने के कारखाने, व्यापारकेन्द्र, काष्ठशालाएँ, कोयलागहों, जंगली काष्ठ (इमारती लकड़ी) के कारखानों एवं दर्भ के आसनादि विक्रय स्थानों में जो अधिकारीगण - इनके स्वामी रहते हैं, उनसे इस प्रकार कहो। __ एवं खलु देवाणुप्पिया ! सेणिए राया भंभसारे आणवेइ - जया णं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थयरे जाव संपाविउकामे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरि( इह आगच्छेजा इह समोसरे )ज्जा तया णं तुम्हे भगवओ महावीरस्स अहापडिरूवं उग्गहं अणुजाणह अहापडिरूवं उग्गहं अणुजाणेत्ता सेणियस्स रण्णो भंभसारस्स एयमटुं पियं णिवेएह॥१॥
कठिन शब्दार्थ - आणवेइ - आदेश देता है, आइगरे - . आदिकर, तित्थयरे - तीर्थंकर, संपाविउकामे - मुमुक्षु भावयुक्त, पुव्वाणुपुव्विं - अनुक्रम से, चरमाणे - विहार करते हुए, गामाणुगाम - एक गाँव से दूसरे गांव, दूइजमाणे - घूमते हुए, सुहंसुहेणं - सुखपूर्वक, संजमेणं - संयम से, अप्पाणं - आत्मा को, भावेमाणे - अनुभावित करते हुए, विहरिजा - आएँ, अहापडिरूवं - यथायोग्य - उनके साधनामय जीवन के अनुकूल, उग्गहं - स्थान, अणुजाणेत्ता - बतलाओ, पियं - प्रिय, णिवेएह - निवेदित करो।
भावार्थ - (कौटुम्बिक पुरुषों ने लोगों को राजाज्ञा के अनुसार सूचित किया।)
देवानुप्रियो ! राजा श्रेणिक बिंबसार ने यह आदेश दिया है - जब आदिकर - अपने युग में धर्म के आद्य प्रवर्तक तीर्थंकर - साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध धर्म संघ - धर्मतीर्थ के प्रतिष्ठापक यावत् मोक्षाभिलाषी, यथाक्रम पादविहार करते हुए ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए, संयम एवं तप से आत्मानुभावित होते हुए यहाँ पधारें तब तुम लोग भगवान् महावीर के संयमीजीवन के अनुरूप आवास आदि हेतु प्रार्थना करें एवं यह प्रीतिकर समाचार राजा श्रेणिक बिम्बसार की सेवा में निवेदित करें।
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