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दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र दशम दशा
णं तस्स भारिया भवइ एगा एगजाया इट्ठा कंता जाव रयणकरंडगसमाणा, तीसे गं अइजायमाणीए वा णिज्जायमाणीए वा पुरओ महं दासीदास जाव किं ते आसगस्स सयइ ? ॥ २० ॥
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तीसे णं तहप्पगाराए इत्थियाए तहारूवे समणे वा माहणे वा उभयकालं केवलिपण्णत्तं धम्मं आइक्खेज्जा ? हंता ! आइक्खेजा, साणं भंते ! पडिसुणेज्जा ? णो इणट्टे समट्ठे, अभविया णं सा तस्स धम्मस्स सवणयाए, सा य भवइ महिच्छा महारंभा महापरिग्गहा अहम्मिया जाव दाहिणगामिए णेरइए आगमिस्साए दुल्लभबोहिया यावि भवइ, एवं खलु समणाउसो ! तस्स णियाणस्स इमेयारूवे पावकम्मफलविवागे जं णो संचाएइ केवलिपण्णत्तं धम्मं पडिसुणित्तए ॥ २१ ॥
कठिन शब्दार्थ - एगजाया- सौत रहित ( पति की एक ही पत्नी), तेल्लपेला तेल से भरी काच की कुप्पी के समान, सुसंगोविया - सुरक्षित, चेलपेला - वस्त्र की पेटिका के समान, रयणकरंडग - रत्नों की डिबिया जैसी, अजायमाणीए - आते हुए, उववत्तारो - उत्पन्न होना, भत्तारस्स पति को, भारियत्ताए पत्नी के रूप में, दलयंति देते हैं।
भावार्थ - आयुष्मान् श्रमणो! मैंने जिस धर्म का प्रतिपादन किया है, वही निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है यावत् जीव इसमें स्थित रहकर सभी दुःखों का अंत करते हैं ।
इस धर्म की ग्रहण - आसेवन रूप साधना में समुद्यत निर्ग्रन्थिंनी (साध्वी) जब भूख, प्यास आदि सहन करती है यावत् उसके चित्त में जब मोहनीय कर्म के उदय से कामविकार उत्पन्न हो जाता है तब भी वह साध्वी संयममार्ग में पराक्रमपूर्वक गतिशील रहे । आत्मबलपूर्वक साधना करती हुई साध्वी किसी एक नारी को देखती है, जो अपने पति की एकमात्र प्राणप्रिया है । जिसने एक सदृश आभरण और वस्त्र धारण कर रखे हैं। तेल की कुप्पिका, वस्त्र पेटिका तथा रत्नकरंडिका की तरह सुरक्षणीया है, उसको आते-जाते घर में प्रवेश करते एवं बाहर निकलते समय बहुत से दास-दासियों से घिरे हुए देखती है इत्यादि समस्त वर्णन पूर्वानुसार है यावत् सेवक-सेविकाएँ उससे पूछते हैं - आपको क्या पदार्थ रुचिकर लगता है?
यह सब देखकर साध्वी निदान करती है - यदि मेरे द्वारा सम्यक् रूप में आचरित इस तप, नियम, संयम, ब्रह्मचर्य रूप धर्म का फल हो यावत् मैं भी आगामी भव में इसी प्रकार के भोग भोगती हुई जीवन व्यतीत करूँ (यही मेरे लिए श्रेष्ठ होगा ) ।
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