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महामोहनीय कर्म-बन्ध के स्थान
१०७ Aakakakakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk परिणामों की धारा, लेश्याएं अशुभ से अशुभतर हो जाती हैं, साथ ही साथ जिन प्राणियों को तड़फा-तड़फा कर वह मारता है, उन मरणोन्मुख जीवों के परिणाम भी प्रायः अत्यन्त कालुष्यपूर्ण पाप पंक से मलिन हो जाते हैं। यों वह स्वयं के साथ-साथ दूसरे के लिए भी घोर पापपूर्ण परिणामों को उत्पन्न कराने में हेतु बनता है।
आत्मप्रशंसा, यशस्विता, कीर्तिकांक्षा जब सीमा पार करने लगती है तब व्यक्ति विविध प्रकार के माया एवं प्रवंचनापूर्ण व्यवहारों द्वारा अपने आप को, जैसा कि वह नहीं है, दिखलाने का जघन्य पाप करता है।
अभिमान या दंभ भी एक ऐसा भयानक रोग है, जो आत्मसाधना में घोर विघ्न उपस्थित करता है। अपने अभिमान को पालित-पोषित कराने हेतु व्यक्ति कितने प्रपंच रचता है, मिथ्यालाप, माया एवं छद्म का सहारा लेता है।
इस प्रकार घोर हिंसाप्रवण, क्रूर, नितांत स्वार्थपूरित, अहंमन्यता और दंभयुक्त परिणामों से मलिनचेता पुरुष नीच से नीच कर्म करता हुआ भी नहीं सकुचाता। वह जिनेन्द्र देव का अवर्णवाद तथा आचार्य, उपाध्याय, कलाचार्य, धर्मगुरु आदि पूज्यजनों को सेवा से संतुष्ट नहीं कर पाता। इतना ही नहीं अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए इनका वध तक कर डालता है।
सूत्र में जो तीस हेतु बतलाए गए हैं, वे इसी कोटि के तीव्रतम कालुष्यमय दूषित, निन्दित, गर्हित कर्म हैं, महामोहनीय बंध के हेतु हैं। अन्तिम पांच गाथाओं में सूत्रकार ने साधक को. दृढता, आत्म-पराक्रम, उद्यम एवं उत्साह के साथ शुद्धात्म भावपूर्वक अपने मोक्ष रूप लक्ष्य को उपात्त करने की प्रेरणा प्रदान की है।
___॥ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र की नववीं दशा समाप्त॥
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