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दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र - पंचम दशा Akakakakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk वास्तविकता को हृदयंगम कर पाता है। जब साधक की दिनचर्या धार्मिकता से ओत प्रोत रहती है तो सहज ही उसके चित्त में समाधि उत्पन्न होती है।
जब स्वप्न-दर्शन तथा क्रमशः अवधि, मन:पर्यव और केवल ज्ञान एवं केवल दर्शन के रूप में साधक उत्तरोत्तर अभिनव उद्योतमय उद्बोध प्राप्त करता है, तब चित्त सहजतया समाहित होता जाता है। इस स्थिति को प्राप्त करने में साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह वासनाओं का विजय करें, मन का निग्रह करें, अशुभ, अप्रशस्त लेश्याओं का निरोध कर शुभ, उत्तम, या प्रशस्त लेश्याओं में आत्म-परिणामों को संप्रवृत्त करे, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय एवं मोहनीय आदि कर्म रूप शत्रुओं का हनन करे, क्योंकि ये ही इस भवचक्र में, संसारसागर में भटकने के कारण हैं। कार्य को नष्ट करने से पूर्व उसके कारण का नाश अत्यन्त आवश्यक है। अत एव साधक असमाधि के हेतुओं का वर्जन करता हुआ, आत्मा की शुद्धावस्था अधिगत करने की दिशा में उद्यत रहता हुआ, चित्त समाधि प्राप्त कर सकता है। चित्त समाधि के प्राप्त होने से ही संयम-साधना निर्बाध रूप में गतिशील रहती है, साधक अपना परम साध्य, परम लक्ष्य, जो निर्वाण है उसे प्राप्त कर लेता है।
॥ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र की पांचवीं दशा समाप्त॥
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