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दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र - पंचम दशा
अन्त-प्रान्तभोजी, विविक्तशयनासनसेवी - एकान्तवासी, अल्पाहारी या कम भोजन करने वाले इन्द्रिय विजेता तथा छह काय के जीवों के त्राता – रक्षक, संयमी साधक को देव-दर्शन प्राप्त होता है।॥४॥
जो सब प्रकार की कामनाओं - काम-भोगों से विरक्त होता है, घोर, भयानक परीषहों एवं उपसर्गों को सहन करता है, वैसे संयमी, तपस्वी साधक को अवधिज्ञान प्राप्त होता है॥५॥
जिसने तप द्वारा अशुभ लेश्याओं को मिटा दिया हो, दूर कर दिया हो, उसे विशुद्ध अवधिदर्शन उपलब्ध होता है, वह उस द्वारा ऊर्ध्वलोक, अधोलोक एवं तिर्यकलोक - इन सब को देखता है॥६॥
जो उत्तम समाधि युक्त, प्रशस्त लेश्या युक्त एवं विकल्प रहित होता है, शुद्ध भिक्षावृत्ति से निर्वाह करता है, सब ओर से विप्रमुक्त - बन्धन मुक्त होता है, उस साधक के मन:पर्यवज्ञान उत्पन्न होता है॥७॥ ___ जब ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाता है, तब केवली - सर्वज्ञ, जिन, वीतराम साधक समस्त लोक और अलोक को जानता है॥८॥ ___जब समस्त दर्शनावरणीय कर्म का क्षय हो जाता है, तब केवली, जिन समग्र लोक तथा अलोक को देखता है॥९॥ __ प्रतिमाओं की विशुद्ध रूप से आराधना करने पर तथा मोहनीय कर्म के क्षीण हो जाने. पर सुसमाहित - सम्यक् समाधियुक्त साधक समस्त लोक और अलोक को देखता है॥१०॥
जैसे ताड़ का वृक्ष मस्तक-स्थान - ऊर्ध्ववर्ती मर्म-स्थल का सूई से छेदन कर दिये जाने पर गिर पड़ता है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षीण हो जाने पर बाकी के सभी कर्म हतविनष्ट हो जाते हैं ॥११॥
जैसे सेनापति के निहत हो जाने पर - मार डाले जाने पर सारी सेना प्रणष्ट - अस्तव्यस्त हो जाती है या भाग छूटती है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने पर शेष सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं ॥१२॥
... जैसे धूम रहित अग्नि, ईधन के अभाव में - काष्ठ आदि न मिलने पर, क्षीण हो जाती है या सर्वथा बुझ जाती है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षीण हो जाने पर सभी कर्म क्षीण हो जाते हैं ॥१३॥
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