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दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र सप्तम दशा
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इस प्रकार स्थविर भगवंतों ने बारह भिक्षु प्रतिमाएँ प्रतिपादित की हैं। इस प्रकार भिक्षु प्रतिमा संज्ञक सातवीं दशा संपन्न होती है।
विवेचन - मुमुक्षु व्यक्ति जब सांसारिक मोह, ममता और आसक्ति को त्याग कर आर्हती दीक्षा स्वीकार करता है, “सव्वं सावनं जोगं पच्चक्खामि " के अनुसार समस्त पाप कर्मों का (वह) मन, वचन, काय से तथा कृत, कारित, अनुमोदित पूर्वक त्याग कर देता है। इससे उन 'आश्रव द्वारों' का निरोध हो जाता है, संवर साधित हो जाता है। यह मोक्षानुगामी साधना का सामान्य रूप है।
यों सर्व सावद्य त्यागी साधु का जीवन एक विशेष साधनात्मक गतिविधि अपना लेता है। संचित कर्मों की निर्जरा हेतु वह अनेक प्रकार के तपों की आराधना करता है। क्योंकि कर्मों के निरोध से ही साध्य फलित नहीं होता । कर्मों को सत्वर द्रुततर निर्जीण करने का एक उज्ज्वल तपोमय क्रम प्रतिमाओं के रूप में व्याख्यात हुआ है।
सावद्य वर्जन की दिशा में उसकी जागरूकता अत्यधिक वृद्धिंगत होती रहे, इस हेतु: प्रतिमाओं में ईर्या समिति आदि के परिपालन की विशेष प्रेरणा दी गई है। अति जागरूकता के बिना स्खलन संभावित है । स्खलन से व्रताराधना निर्बल बनती है । अत एव कदापि स्खलनात्मक स्थिति न बने ऐसी वृत्ति साधक में उदग्र रहे। साधक मन में यह चिंतन रहे कि वह देह नहीं है, आत्मा है। देह का सार्थक्य या उपयोगित्व इतना ही है कि वह साधना में सहायक बने। अत एव साधनामय जीवन में आने वाले परीषहों और उपसर्गों में उसे सदैव अविचल और सुस्थिर बने रहना चाहिए । प्रतिमाराधना में इस पक्ष को बहुत महत्त्व दिया गया है। अग्नि आदि के भयावह उपसर्गों में भी वह निर्भीक रहे। यह निर्भीकता जीवन में तभी पनप पाती है जब उसमें आत्मा और देह के भेदविज्ञान का अनुभव हो । सिंह आदि भीषण जन्तुओं के सम्मुख आने पर आक्रमण करने पर भी उसके एक रोम में भी भय न व्यापे, वह सर्वथा व्युत्सृष्टकाय रहे, मानों वह देह से अतीत हो ।
परमात्मभाव में, शुद्धात्मचिंतन में उसकी लो लगी रहे, यह भी उत्कृष्ट साधक के लिए परमावश्यक है क्योंकि ध्यान निर्जरा के बारह भेदों में आन्तरिक तप का यह उज्वलतम रूप है । " एगपोग्गल गयाए दिट्ठीए अणिमिसणयणे" - इत्यादि के रूप में जो एकाग्रता स्वायत्त करने का उल्लेख हुआ है, वह ध्यान की ऊँची भूमिका का द्योतक है। धर्मध्यान का
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