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एकारात्रिकी भिक्षप्रतिमा kkkkkkkkkkkkkAAAAAAAAAkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk उत्कृष्ट रूप यहाँ साधित होता है, जो क्रमश: साधक को शुक्ल ध्यान की भूमिका में संप्रविष्ट होने की स्थिति प्रदान करता है। . .
ऐहिक जीवन में प्रत्येक व्यक्ति के लिए देह चलाने हेतु भोजन आवश्यक है। साधु के लिए भिक्षाचर्या द्वारा जीवन-निर्वाह का विधान किया गया है। भिक्षाचर्या में भी इतनी आन्तरिक सावधानी रहे, जिससे उसमें जरा भी दोष न आ पाए तथा देने वाले के लिए किसी भी प्रकार की असुविधा, अन्तराय या बाधा उत्पन्न न हो। गर्भवती स्त्री से, अपने बच्चे को स्तन-पान कराती हुई स्त्री से भिक्षा न लेने का जो विधान हुआ है, वह भिक्षाचर्या के अतिसूक्ष्म, अति विशुद्ध, अन्यों के लिए सर्वथा अविघ्नकर रूप का परिचायक है। एक साधु का जीवन स्वपर-कल्याणपरायण होता है। वह व्रत, संयम, तप, ध्यान आदि द्वारा अपना कल्याण करता है तथा इनकी ओर जन-जन को प्रेरित, उद्बोधित, उत्साहित करता हुआ पर-कल्याण करता है। ये दोनों उद्देश्य सिद्ध होते रहें, दोनों की सिद्धि में, देह की सहयोगिता है, अत एव उसका निर्वाह अपेक्षित है। जहाँ निर्वाह मात्र लक्ष्य होता है, वहाँ एषणा मिट जाती है। एक मात्र
आत्मोन्नति के लक्ष्य में तत्पर प्रतिमाधारी- साधक एषणाओं और इच्छाओं को क्षीण करता हुआ, बहिरात्मभाव से अन्तरात्मभाव में लीन होता हुआ, परमात्म भाव की दिशा में अग्रसर रहता है। ज्यों-ज्यों कार्मिक बंधन क्षीण होते जाते हैं, प्रभाव उच्छिन्न होता जाता है, त्यों-त्यों आवरण मिटते जाते हैं और अंततः जीव आवरणों से सर्वथा विमुक्त होकर, निरावरण एवं निर्मल बन जाता है, परिनिर्वृत हो जाता है।
.. यहाँ प्रासंगिक रूप में यह ज्ञातव्य है कि आठवीं से बारहवीं प्रतिमा तक दत्ति का कोई परिमाण प्रतिपादित नहीं हुआ है, अत एव उन प्रतिमाओं के पारणे के दिन आवश्यकतानुसार आहार-पानी की दत्तियाँ स्वीकरणीय हैं।
यह भी हाँ जानने योग्य है कि प्रत्येक भिक्षु प्रतिमा एक-एक मास में आराधित होती हैं। इसलिए भिक्षु प्रतिमाओं में द्वैमासिकी, त्रैमासिकी, चतुर्मासिकी, पंचमासिकी, षट्मासिकी, सप्तमासिकी - इनमें दो, तीन, चार आदि जो संख्यावाचक शब्द लगे हैं, वे द्वितीय - दूसरी, तृतीय - तीसरी, चतुर्थ - चौथी, पंचम - पांचवीं, षष्ठ - छठी, सप्तम - सातवीं, अष्टम - आठवीं, नवम - नवीं, दशम - दसवीं, एकादश - ग्यारहवीं तथा द्वादश - बारहवीं के द्योतक हैं।
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