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एकारात्रिकी भिक्षुप्रतिमा
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. कठिन शब्दार्थ - पब्भारगएणं काएणं - प्राग्भारनतेन शरीर के अग्रभाग को झुकाकर, एगपोग्गलगयाए दिट्ठीए - एक पुद्गल पर स्थित की हुई दृष्टि से, अणिमिसणयणे - अपलक दृष्टि युक्त (निर्निमेष दृष्टियुक्त - नेत्र टिमटिमाए बिना), अहापणिहिएहिं - सर्वथा स्थिर, अक्खमाए - अक्षमा के लिए - क्षमा रहित, अणिस्सेसाए - अकल्याणकर, अणाणुगामियत्ताए - पुनरागमन रहित, उम्मायं - उन्माद, लभेजा - प्राप्ति हो जाये, पाउणेजा - प्राप्त हो जाय, भंसेज्जा - भ्रष्ट हो जाय।
भावार्थ - एकरात्रिकी भिक्षु प्रतिमाधारी अनगार परीषह, उपसर्ग आदि के उपस्थित होने पर देह के ममत्व से सर्वथा रहित होता है, यावत् सहन करता है। द्विदिवसीय उपवास (बेले की तपस्या) स्वीकार कर वह. ग्राम यावत् राजधानी से बाहर जा कर, शरीर को कुछ आगे झुकाकर, एक पुद्गल पर दृष्टि टिकाए रखता हुआ, नेत्रों को निर्निमेष, दैहिक अंगों को निश्चल तथा इन्द्रियों को वशगत रखता हुआ, दोनों पैरों को संकुचित कर, दोनों भुजाओं को लम्बी कर कायोत्सर्ग में स्थित रहे, ऐसा कल्पता है। वहाँ देव, मानव या तिर्यंच विषयक उपसर्ग हो यावत् सहन करता है। यदि मलमूत्र की बाधा उत्पन्न होती है तो उसे रोकना नहीं कल्पता अपितु पूर्व प्रतिलेखित स्थंडिल भूमि पर उच्चार-प्रस्रवण का परिष्ठापन कर, यथाविधि पूर्ववत् कायोत्सर्ग में स्थित रहे।
एकरात्रिकी भिक्षु प्रतिमा का सम्यक् अनुपालन न करने पर अनगार के लिए ये तीन स्थान अहितकर, अशुभ, क्षान्तिरहित एवं अकल्याणकारी होते हैं - १. उन्माद (पागलपन) की प्राप्ति हो जाए, २. दीर्घकालिक रोग का आतंक उत्पन्न हो जाए, ३. केवली प्ररूपित श्रुतचारित्रमय धर्म से पतित हो जाय।
. एकरात्रिकी भिक्षु प्रतिमा का भलीभाँति अनुपालन करने वाले अनगार के लिए ये तीन स्थान हितप्रद, शुभ, क्षांतिकर एवं कल्याणकर होते हैं, वे स्थान हैं -
१. अवधि ज्ञान की समुत्पत्ति हो जाय
२. मनःपर्यवज्ञान की उत्पत्ति हो जाए तथा ... ३. पूर्व में अनुत्पन्न केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाय। . इस प्रकार से इस एकरात्रिकी भिक्षु प्रतिमा का सूत्रानुमोदित, स्थविरादिकल्पानुसार, मोक्षमार्गानुरूप, अर्हत् प्रतिपादित तत्त्वानुसार, समभाव पूर्वक देह से स्पर्श करता हुआ - आत्मसात करता है, पालन, शोधन, पूरण, कीर्तन और आराधन करता है, वह जिनाज्ञा का अनुपालयिता होता है।
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