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एकादश उपासक प्रतिमाएं
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एकादश प्रतिमा - एकादश प्रतिमाधारी उपासक सर्वधर्माभिरुचिशील - श्रुत-चारित्र रूप धर्म में आस्थायुक्त होता है यावत् उद्दिष्ट आहार का परित्यागी होता है। वह उस्तरे से मुण्डन करवाता है अथवा केशों का लुंचन करता है। वह साधु के आचार, पात्र आदि उपकरण एवं वेशभूषा - चद्दर, चौलपट्ट, रजोहरण, दोरकयुक्त मुखवस्त्रिका इत्यादि धारण करता है। श्रमण निर्ग्रन्थों का जो धर्म परिज्ञाप्रित हुआ है, वह उसका भलीभाँति काया से स्पर्श करता हुआ - उसे आत्मसात् करता हुआ, अपने आपको उसमें सर्वथा क्रियाशील रखता हुआ, पालन करता हुआ, चलते समय आगे चार हाथ प्रमाण भूमि को देखता हुआ, त्रस प्राणियों को देखकर उनकी रक्षा के लिए पैर संकुचित करता हुआ अथवा उन्हें बचाने हेतु तिरछा चलता हुआ, साधवधानी से गतिशील रहता है। यदि अन्य जीवरहित मार्ग हो तो उसी पर यतनापूर्वक चलता है, जीव सहित. सीधे मार्ग पर नहीं चलता। उसका पारिवारिकजनों से परस्पर स्नेहबंधन का व्यवच्छेद नहीं होता। इसीलिए इनके यहाँ भिक्षा हेतु जाना उसे कल्पता है। . .. गृहस्थ के घर में प्रतिमाधारी उपासक के भिक्षा हेतु जाने से पूर्व भात पके हुए हों किन्तु जाने के बाद दाल पके तो उपासक को भात लेना ही कल्पनीय है, दाल लेना कल्पनीय नहीं होता। प्रतिमाधारी के पहुंचने से पूर्व दाल पकी हुई हो परन्तु भात पश्चात् पके हों तो दाल लेना कल्पता है, भात लेना नहीं।
प्रतिमाधारी के आगमन से पूर्व भात और दाल-दोनों पके हुए हों तो दोनों लेना कल्पानुमोदित है। किन्तु पहुँचने के पश्चात् यदि दोनों पके हों तो लेना नहीं कल्पता। __प्रतिमाधारी जब गृहस्थ के घर में भिक्षार्थ प्रविष्ट हों, तब उसे इस प्रकार वाक् प्रयोग करना कल्पता है - "प्रतिमाप्रतिपन्न - प्रतिमा के आराधक श्रमणोपासक को भिक्षा दें।" उसके यों प्रतिमाधारी के स्वरूप को देखकर यदि कोई पूछे - "हे आयुष्मन्! आप कौन हैं, आपको किस रूप में संबोधित किया जाए?" तब उसका वक्तव्य इस प्रकार हो - "मैं प्रतिमाराधक श्रमणोपासक हूँ।" इस प्रकार वह अपनी प्रतिमामूलक साधना में संलग्न रहता हुआ जघन्यतः .. एक, दो या तीन दिन से लेकर उत्कृष्टतः ग्यारह मास पर्यन्त साधनापरायण रहे।
यह ग्यारहवीं. उपासक प्रतिमा का स्वरूप है। स्थविरं भगवंतों ने इन ग्यारह उपासक प्रतिमाओं का प्रतिपादन किया है। इस प्रकार षष्ठ दशा सम्पन्न होती है।
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