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एकादश उपासक प्रतिमाएं
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गुरुपद वाच्य है, उपदेश का अधिकारी है। ऐसे गुरु से सुनकर गृही बोध प्राप्त करता है। इसी कारण 'शृणोतीति श्रावकः' के अनुसार वह श्रावक पदवाच्य है।
उपासक के साथ आया प्रतिमा शब्द भी एक विशिष्ट अर्थ का बोधक है। सामान्यतः मूर्ति को प्रतिमा कहा जाता है। "प्रतिमीयतेऽनेन इति प्रतिमान प्रतिमा वा" के अनुसार प्रतिमा का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ यथावत् मूल्यांकन या परिमाप विशेष होता है। उन सिद्धान्तों की, जो साधना में विहित हैं, गुरुपदिष्ट हैं, प्रतिमाधारी के मन, वचन और काय में मूर्तता होती है। वे सिद्धान्त केवल वागत नहीं, जीवनगत होते हैं।
उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं का जो स्वरूप प्रस्तुत सूत्र में व्याख्यात हुआ है, उसका प्रारंभ सम्यग-दर्शन से है, जो साधना का मूल है। 'छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्' - यदि मूल ही विच्छिन्न हो तो पौधा न अंकुरित ही होता है और न उससे शाखाएं और पत्ते ही फूटते हैं। इसी प्रकार साधना में दर्शन विशुद्धि, सम्यक् दृष्टि या सत्यात्मक आस्था परमावश्यक है। .
प्रत्येक प्रतिमा के प्रारंभ में "सर्वधर्माभिरुचिशील" जो कहा है, वह उपासक की. श्रुत-चारित्रमूलक धर्म में सम्यक् श्रद्धा, दृढ़ आस्था या अखण्ड विश्वास का द्योतक है। वैसा होने पर ही प्रत्येक प्रतिमा में साध्य उपासनाक्रम फलित होता है। ____इन प्रतिमाओं में क्रमश: आचार विशुद्धि मूलक साधनाक्रम उत्तरोत्तर ऊर्ध्वमुखी दृष्टिगोचर होता है। शीलव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत मूलक आदर्श उत्तरोत्तर जीवन में विकास पाते जाते हैं, जो अहिंसा, संतोष, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह एवं व्रत-पौषधोपवास आदि संयममूलक अभ्यासक्रम
को क्रमशः वृद्धिंगत करते जाते हैं। __। इस प्रकार साधनापथ पर आगे बढ़ता हुआ प्रतिमाधारी अंतिम - ग्यारहवीं प्रतिमा में साधु जैसी भूमिका का संस्पर्श करने लगता है। इसी कारण इसका एक नाम 'श्रमणभूत प्रतिमा' भी है।
श्रावक के लिए भगवत्प्ररूपित, उद्दिष्ट द्वादश व्रतात्मक सोपान मार्ग पर उत्कर्षपूर्वक तीव्रता से अग्रसर होने और क्रमशः श्रमण जीवन की महत्ता का संस्पर्श करने का जो रूप प्रतिमाओं में व्याख्यात हुआ है, वह साधना पथ पर गतिशील जनों के लिए नि:संदेह दिव्य पाथेय है।
॥ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र की छठी दशा समाप्त॥
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