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उपासक प्रतिमाएं kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk
ज्वालाओं से युक्त, कर्कश स्पर्शयुक्त तथा कठिनता से सहे जा सकने योग्य होने से (वे नरक) अशुभ हैं और वहाँ अशुभ ही वेदना है। नरकावास में रहने वाले नारकीय जरा भी सो नहीं पाते, प्रचला संज्ञक (हल्की) नींद (ऊंघ) भी नहीं ले पाते। उनको स्मृति (याददाश्त) प्रेम, धैर्य और बुद्धि अप्राप्त रहते हैं। वे नारकीय जीव वहाँ उज्ज्वल, विपुल, प्रगाढ, कर्कश, कटुक, क्रूर, दु:खद, दुर्गम, तीक्ष्ण, तीव्र तथा असह्य वेदना का अनुभव करते रहते हैं।
जैसे कोई एक वृक्ष पर्वत की चोटी पर उत्पन्न हुआ हो। यदि उसका मूल छिन्न हो जाए, कट जाए एवं ऊपर का भाग बहुत बोझिल हो तो वह दुर्गम, विषम स्थान में गिर . पड़ता है। उसी प्रकार पूर्व वर्णित नास्तिकवादी पुरुष एक गर्भ से दूसरे गर्भ में, एक जन्म से
दूसरे जन्म में, एक मरण से दूसरे मरण में तथा एक दुःख से दूसरे दुःख में पड़ता जाता है। इस प्रकार वह नास्तिकवादी पुरुष दक्षिणवर्ती नरकावास में कृष्णपाक्षिक होता है - अर्द्ध पुद्गल परावर्त से अधिक काल तक भवचक्र में भटकता है तथा भविष्य में भी दुर्लभबोधि होता है - उसे सम्यक्त्व प्राप्ति नहीं हो पाती।
यह अक्रियावादी का स्वरूप है। (अक्रियावादी के विवेचन के अन्तर्गत अब क्रियावादी का वर्णन प्रस्तुत है।) क्रियावादी किस प्रकार का होता है?
वह आस्तिकवादी, आस्तिकप्रज्ञ, आहितकदृष्टि, सम्यक्त्ववादी, नित्यवादी (मोक्षादि शाश्वत • तत्त्वों के नित्यत्व में आस्थाशील), परलोक के अस्तित्व में विश्वासी होता है। उसका अभिमत
एवं निरूपण ऐसा होता है - यह लोक है, नरक, स्वर्ग आदि परलोक हैं। माता, पिता, अर्हत् (तीर्थकर), चक्रवर्ती, बलदेव एवं वासुदेव का अस्तित्व है। सुकृत - पुण्य एवं दुष्कृत - पाप कर्मों का फल क्रमशः सुखात्मक एवं दुःखात्मक होता है। शुभ परिणाम से कृत कर्मों का शुभ फल होता है तथा अशुभ परिणाम से किए हुए कर्मों का अशुभ फल होता है। पुण्य
और पाप सुख तथा दुःख रूप फलप्रद होते हैं। जीव जन्मान्तर में जाते हैं। नारक यावत् देव पर्यन्त गतियों का अस्तित्व है। मुक्ति या मोक्ष है। वह इस प्रकार का कथन करता है, उसकी प्रज्ञा तदनुरूप होती है, उसकी दृष्टि उसी के अनुकूल होती है तथा वह अपनी मान्यता में अत्यंत निष्ठावान होता है। __यदि वह आस्तिकवादी महत्त्वाकांक्षी - राज्य, वैभव, परिवार आदि की इच्छा से युक्त होता है, महापरिग्रही हो जाता है तो वह अपनी-अपनी महत्त्वाकांक्षा एवं महापरिग्रह के
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