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चित्तसमाधि के दश स्थान
जैसे जड़ के सूख जाने पर, सींचे जाने पर भी पेड़ पल्लवित पोषित नहीं होता, उसी प्रकार मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने पर अन्य कर्म विद्यमान नहीं रहते ॥१४॥
जैसे बीजों के दग्ध हो जाने पर जल जाने या नष्ट हो जाने पर, अंकुर उत्पन्न नहीं होते, उसी प्रकार कर्म रूप बीजों के दग्ध हो जाने पर, जन्म-मरण या आवागमन रूप अंकुर उत्पन्न नहीं होता ॥१५॥
योग सूत्र
+ योग सूत्र
औदारिक शरीर का परित्याग कर नाम, गोत्र, आयुष्य और वेदनीय कर्म का छेदन नाश कर केवली भगवान् कर्म रज से सर्वथा रहित हो जाते हैं ॥१६॥
आयुष्मन् ! इस प्रकार चित्त समाधि एवं श्रेणी विशुद्धि - शुद्ध श्रेणी या क्षपक श्रेणी को मुक्तावस्था प्राप्त कर लेता है ॥ १७ ॥
प्राप्त कर साधक परम शुद्धावस्था
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में आया हुआ 'समाधि' शब्द आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह 'सम' तथा 'आ' उपसर्ग, 'धा' धातु और 'कि' प्रत्यय के योग से बना है। सम् - सम्यक्, आ समन्तात्, धीयते मनोयत्र, स समाधिः । " जहाँ मन को, अन्तर्वृत्तियों को भलीभाँति एकाग्र, प्रशान्त या आत्मोन्मुख बनाया जाता है, वैसी अवस्था समाधि शब्द द्वारा अभिहित की गई है। आध्यात्मिक उत्कर्ष के पथ पर आरूढ साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने चित्त को सुसमाहित- सुसमाधियुक्त बनाए रखे। इससे संयम और साधना में स्थिरता एवं दृढता प्राप्त होती है।
पातंजल योग में योग के आठवें अंग को समाधि कहा गया है । यह योग साधना का प्रकर्ष - उत्कृष्टतम रूप है, जो धारणा और ध्यान के सिद्ध होने पर प्राप्त होता है । वह ऐसी स्थिति है, जहाँ शुद्ध आत्मस्वरूपमूलक ध्येय की ही प्रतीति होती है ।
एक ही ध्येय में केन्द्रित होते हैं, योग
धारना, ध्यान एवं समाधि जब ये तीनों एकत्र सूत्र में उसे संयम कहा गया है।
चित्तसमाधि तभी प्राप्त होती है, जब साधक अपने दैनंदिन समग्र कार्यों में जागरूक, संयत या यतनाशील रहता है, मानसिक, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियों में सावद्य का वर्जन करता है, उसके अन्तरंग में धर्म-भावना व्याप्त रहती है। वैसा होने से ही वह धर्म की
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કર
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