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आचार्य और गण के प्रति शिष्य की कर्त्तव्यशीलता
यह भारप्रत्यवरोहणता का स्वरूप है ।
स्थविर भगवंतों ने इस प्रकार की आठ प्रकार की गणिसंपदा का आख्यान किया है। विवेचन गण के अनुशास्ता, नियामक, समुन्नायक गणी या आचार्य होते हैं। उन द्वारा अनुशासित, साधना पथ पर संचालित शिष्यवृन्द गण के मुख्य आधार हैं। आधार और आधेय का परस्पर अविनाभाव संबंध है। दोनों का पारस्परिक समन्वय सर्वथा अपेक्षित है। आचार्य गण का अभिवर्द्धन, संवर्द्धन एवं संचालन करते हैं। गण के सुखद निर्वाह, उत्थान एवं विकास में शिष्यों का अन्तेवासी मुनियों का भी उत्तरदायित्व है । अत एव विनयसंपदा के रूप में सूत्र में उन कर्त्तव्यबोधक तथ्यों का विवेचन है, जिनसे शिष्यों का सीधा संबंध है। विनय को यहाँ जो संपदा कहा गया है, यह उसकी महत्ता का द्योतक है। "विशेषेण नयः विनयः " के अनुसार अत्यधिक विनम्रता, तदनुरूप शालीनता और ससम्मान कर्त्तव्यवाहिता का इसमें समावेश हो जाता है। शिष्य गणी के प्रति प्रत्येक व्यवहार में विनयशील तो होते ही हैं किन्तु गण के लिए अपेक्षित स्थितियों की परिपूरकता में भी उनका दायित्व है ।
गण के प्रति श्रद्धातिशयवश शिष्यों को चाहिए कि वे उनके उत्तम, प्रशस्त गुणों का यथावश्यक संकीर्तन करते रहें। इससे उनकी अपनी श्रद्धा तो बढ़ती ही है, लोगों के मन में गणी के प्रति सम्मान बढता है, धर्मशासन की प्रभावना होती है। गणी के साथ-साथ स्थविरों, ज्ञानवृद्धों, वयोवृद्धों के प्रति भी शिष्यों के मन में समादर होना चाहिए।
वृद्ध, रुग्ण आदि मुनिगण का वैयावृत्य करना भी उनका उत्तरदायित्व है ।
दिखने में छोटी लगने वाली बातों का विस्तार से जो उल्लेख हुआ है, उसके पीछे गण के समीचीन रूप में संचालन, चतुर्विध धर्मशासन की उत्तरोत्तर उन्नति, आर्हत् प्रवचन की प्रभावना इत्यादि का आशय रहा है।
॥ दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र की चौथी दशा समाप्त ॥
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