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आचार्य और गण के प्रति शिष्य की कर्तव्यशीलता
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पूर्ण करना, संविभइत्ता - उपकरणों का संविभाग करना, अणुलोमवइसहिए - अनुलोमवाक्सहितता - गुरु की गरिमा के अनुरूप वचन बोलना, अणुलोम-कायकिरियत्तागुरु के अनुकूल - जैसा गुरु चाहे तदनुरूप कार्यकारिता, पडिरूवकायसंफासणया - प्रतिरूपकार्यस्पर्शनता - गुरु को जिस प्रकार से मनःसमाधि प्राप्त हो, वैसी सेवा-सुश्रूषा करना, सव्वत्थेसु अपडिलोमया - समस्त कार्यों में गुरु के प्रतिकूल व्यवहार न करना, अहातच्चाणं वण्णवाई - आर्हत प्रवचनानुरूप वर्तनशील गुरु, आचार्य का वर्णवाद - यश:कीर्तन करना, अवण्णवाई - अवर्णवादी - निन्दक, अणुबूहित्ता - अनुबॅहित्ता - गुरु के गुणभाषी व्यक्ति को वर्धापित करना, आयवुड्डसेवी - दीक्षा पर्याय आदि में ज्येष्ठ, वरिष्ठ साधुओं की सेवा करना, असंगहियपरिजण-संगहित्ता - असंगृहीत परिजन संग्रहिता - गण से पृथक्भूत नव शिष्य (साधु) को समझा-बुझाकर पुनः संघ में लाना, गिलायमाणस्स - ग्लानि प्राप्त - रोगयुक्त, अंहाथामं - यथास्थाम - यथाशक्ति, अहिगरणंसि उप्पण्णंसि - परस्पर कलह होने पर, अणिस्सिओवस्सिए - राग-द्वेष रहित होकर, अपक्खग्गाही - निष्पक्ष होकर, मज्झत्थभावभूए - माध्यस्थ्य भावयुक्त होकर, खमावणाए - क्षमापना से, विउसमणयाए.- विशेष रूप से उपशान्त करना, सयासमियं - संदा शान्तियुक्त, अप्पसद्दाअल्पशब्द - निम्न शब्द न हो, अप्पझंझा - तुच्छ-झंझट न हो, अप्पतुमंतुमा - तू-तू - मैं-मैं नहीं करना।
भावार्थ - गुणसंपन्न अंतेवासी की चार प्रकार की विनयप्रतिपत्ति - विनयाराधना होती है - १. उपकरणोत्पादनता २. सहायकता ३. वर्णसंज्वलनता तथा ४. भारप्रत्यवरोहणता। १. उपकरणोत्पादनता कितने प्रकार की कही गई है? उपकरणोत्पादनता के चार प्रकार प्रतिपादित हुए हैं - (१) शिष्य अप्राप्त उपकरणों को प्राप्त कराता है। । (२) पूर्व प्राप्त उपकरणों का संरक्षण, संगोपन करता है। (३) गणस्थित श्रमणों के पास अपेक्षित से कम उपकरण हों, उनकी पूर्ति करता है। (४) प्राप्त उपकरणों का यथोचित संविभाग करता है। यह उपकरणोत्पादनता का स्वरूप है। २. सहायकता कितने प्रकार की निरूपित हुई है ?
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