________________
३४
बनाना ।
दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र - चतुर्थ दशा
श्रुतविनय चार प्रकार का बतलाया गया है।
१. आगमों का पाठनं २. (सूत्रों के) अर्थ का परिज्ञापन ३. शिष्य के हित का उपदेश ४. सूत्रों का संपूर्णतया पाठन, अर्थ परिज्ञान ।
यह श्रुतविनय का स्वरूप है।
विक्षेपणा विनय कितने प्रकार का कहा गया है ?
विक्षेपणा विनय चार प्रकार का बतलाया गया है।
१. जिसने संयममूलक धर्म को पूर्णतः नहीं समझा है, उसे समझाना ( मिथ्यात्व से हटाना) ।
२. जिसने संयम धर्म को समझा हो, उसे साधर्मिक अपने समान धर्मा (स्वसदृश)
दोषनिर्घातन विनय कितने प्रकार का है ?
वह चार प्रकार का बतलाया गया है।
-
३. धर्म से च्युत - पतित को पुनः धर्म में स्थापित करना ।
४. संयम धर्म में स्थित शिष्य के ऐहिक पारलौकिक हित, सुख, सामर्थ्य एवं मोक्ष के लिए तथा भवान्तर में भी धर्म उसके अनुगत हो - उसे धर्म प्राप्ति हो, एतदर्थ प्रयत्नशील रहना।
यह विक्षेपणाविनय का स्वरूप है।
-
-
४. स्वयं संयमानुरत और आत्मस्थैर्य युक्त बने रहना।
यह दोषनिर्घातन विनय का स्वरूप है।
Jain Education International
**
१. शिष्य के (अकस्मात्) क्रोधाविष्ट हो जाने पर मृदु वचन द्वारा क्रोध को शान्त करना ।
२. विषय कषाय आदि दोषों से युक्त शिष्य के इन दोषों को मिटाना ।
३. अन्य मतवादियों की ओर आकृष्ट हुए शिष्य के आकर्षण या आकांक्षा का निवारण करना ।
विवेचन - जीवन में अधिकार एवं कर्त्तव्य - दोनों का महत्त्व है। अधिकारों के पात्र वे होते हैं, जो तदनुरूप कर्त्तव्यपालन का दायित्व भी वहन करते हैं। शास्त्रों में आचार्य को जी अपरिसीम अधिकार दिए गए हैं, वहाँ उन पर सहज ही यह दायित्व आता है कि वे अपने शिष्यों के जीवन को उत्कृष्ट, पवित्र, ज्ञान एवं आचार की दृष्टि से उच्च बनाने का प्रभास करें। यही कारण है कि इस सूत्र में, प्रस्तुत प्रसंग में आचार्य के दायित्वबोध की भी चर्चा की गई है।
For Personal & Private Use Only
www.jalnelibrary.org