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अष्टविध गणिसंपदा
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(v) अनिश्रित धारणा - बिना किसी अन्य साधन, आधार, सहयोग आदि के स्मृति में रखना, (vi) असंदिग्ध धारणा - सर्वसंशयवर्जनपूर्वक किसी विषय को स्मृति में धारण करना, यह धारणामति संपदा का स्वरूप है। यह मति संपदा का स्वरूप है। ७. प्रयोगमतिसंपदा कितने प्रकार की है? प्रयोगमतिसंपदा चार प्रकार की बतलाई गई है - (अ) अपनी क्षमता को समझ कर वाद (शास्त्रार्थ) का प्रयोग करना, (ब) परिषद् - सभा की स्थिति का आकलन कर वाद का प्रयोग करना, (स) क्षेत्रीय स्थिति को यथावत् जानकर वाद का प्रयोग करना, (द) वस्तु विषय को अवगत कर वाद का प्रयोग करना, यह प्रयोगमतिसंपदा का स्वरूप है। ८. संग्रहपरिज्ञासंपदा कितने प्रकार की निरूपित हुई है? संग्रहपरिज्ञासंपदा चार प्रकार की बतलाई गई है -
(अ) वर्षावास में अनेक मुनिगण के रहने योग्य उपयोगी क्षेत्र का शास्त्रमर्यादानुरूप गवेषण, चयन करना,
(ब) अनेक साधुओं के लिए अपेक्षित, समुचित, प्रातिहारिक पाट, बाजौट, शय्या, संस्तारक इत्यादि का शास्त्र विधि सम्मत संचयन करना,
(स) काल के बहुआयामी स्वरूप का अवबोध कर, जिस काल में जो कार्य (स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन आदि) शास्त्र सम्मत विधि से करणीय हों, उन्हें उसी काल में यथावत् रूप में करना,
(द) पर्यायज्येष्ठ, ज्ञानवृद्ध आदि का सम्मान करना, यह संग्रहपरिज्ञासंपदा का स्वरूप है।
विवेचन - चौथी दशा के अन्तर्गत आठ प्रकार की गणि संपदा का विवेचन हुआ है। गणी का अर्थ आचार्य है। 'गणोऽस्यास्तीति गणी' के अनुसार गणी शब्द के मूल में गण है। जो गण का स्वामी, अधिपति या अधिनायक होता है, उसे गणी कहा जाता है। गण का सामान्य अर्थ जनसमूह या प्रजाजन है। नैन शास्त्रों में गण शब्द का समान आचारव्यवहार युक्त साधुओं के लिए प्रयुक्त होता है। ऐसे साधु समूह के अधिपति आचार्य होते हैं। आचार्य गण में सर्वोच्च पद है।
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