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गृहस्थ सामान्य धर्म : १५ अनभिशङ्कनीयतया परिभोगाद विधिना
तीर्थगमनाच्चेति ॥५॥ मूलार्थ-जिस द्रव्यका उपभोग करनेमें लोगोंको उपभोक्ता पर या भोग्य वस्तु पर शंका न हो ऐसी रीतिसे उसका उपभोग हो और जिस द्रष्यसे विधिपूर्वक तीथोटन आदि हो ऐसा न्यायोपार्जित धन-द्रव्य उस व्यक्तिके दोनों लोकमें हितकारी है-दोनों लोकमें उसका हित करनेवाला है ॥५॥
विवेचन-इस जगत्में अन्याय रत पुरुष पर दो तरहसे शंका की जा सकती है। एक तो भोका पर, जो उस वस्तुका उपभोग करता है तथा दूसरे भोग्य वस्तु और वैभव पर-उपभोग करने योग्य वैभव पर । भोक्ता पर तो 'वह परद्रोह करनेवाला है। इस प्रकारका दोष आनेकी संभावना है। परद्रोह अर्थात् परायेका द्रव्यहरण करनेवाला । भोग्य वस्तु पर पुनः यह आक्षेप किया जा सकता है कि यह परद्रव्य है-दूसरेका वैभव है-इस प्रकारका कोई भी दोष न मडा जा सके तब वह आनंदसे उस व्यका भोग कर सकता है उसे 'अनभिशङ्कनीय' कहा जाता है। ऐसे न्यायसे उपार्जित द्रव्यको प्राप्त करके भोक्ता उसका 'परिमोगाद' उपभोप-परिभोग करे अर्थात् स्नान, पान, आच्छादन व अनुलेपन-तेल व चंदनादि सुगंधी द्रव्योकी मालिश आदि भोगके प्रकारो सहित स्वयं तथा अपने मित्र व स्वजनादि सहित उसका भोग करें- द्रव्यका व्यय करे-उस पर जीवननिर्वाह करे, इसका भाव यह है कि न्यायसे पैदा किये हुए द्रव्य पर तथा उसके भोगने व व्यय करने पर कोई भी व्यक्ति किसी