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गृहस्थ विशेष देशना विधि : २१९ अत्र तृतीय शिक्षात्रतके अतिचार कहते हैं
अप्रत्युपेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादान निक्षेप संस्तारोपक्रमणाऽनादरस्मृत्यनुपस्थापनानीति ||३३|| (१६६)
मूलार्थ - बिना देखे व विना प्रमार्जित किये मल-मूत्र त्याग करना, ऐसे ही स्थानमें धार्मिक उपकरण रखना या लेना, संधारा (पथारी) को बिना देखे या प्रमार्जे चिना उपभोग करना, पौषधोपवासका अनादर करना और स्मृतिनाश- ये पांच अतिचार हैं ।
विवेचन - अप्रत्युपेक्षित - नेत्रों द्वारा पहलेसे देखे चिना, प्रमादसे प्रांत नेत्रों द्वारा भली प्रकार निरीक्षण किये बिना यहां दोनों अर्थ बिना देखे तथा बिना ठीक प्रकारसे देखे - लेने चाहिये ।
अप्रमार्जित - वस या पूंजीसे बिना साफ किये या आबा साफकरके ही इस प्रकारकी भूमिमें स्थंडिल - शौच व मूत्र आदिका त्यागकरना | पौषधोपवासमें प्रत्येक वस्तु भली प्रकारसे देखकर तथा साफकरके लेना-देना चाहिये । यतनापूर्वक जाना-आना चाहिये तथा मल-मूत्रादिका त्याग या परठनेके समय देखकर व साफ करके करना चाहिये ।
पौषधोपवासमें उपयोगी तथा स्थंडिल वगेरह में उपयोगी धर्मके उपकरण -पाट, पूंजी, ठवणी आदिको भली प्रकारसे देखकर तथा साफकरके काम लेना चाहिये । उनको लेते समय तथा रखते समय इसकी बहुत सावधानी रखना चाहिये, जिससे किसी प्रकारसे भी