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यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३८९
मूलार्थ- शुद्ध यतिधर्मके अधिकार में इस ( प्रवृत्तिमात्र) का निषेध है ||६२ ||
विवेचन - यतिधर्माधिकारः - शुद्ध साधुधर्मके व्यधिकारमेंवर्णन |
यहां उत्सर्ग और शुद्ध यतिधर्मके बारेमें कहा जा रहा है। अतः यहां शुद्ध यतिधर्मके बारेमें ही वर्णन करेंगे। अतः केवल दीक्षाकी प्रवृत्तिको ही योग्यता मानना- इसका निषेध है । हरेक पुरुष केवल दीक्षा ले लेनेसे ही भाव यतित्वके योग्य नहीं होता | लेकिन जैसे कीड़ा लकडी खाते खाते उसमें कोई अक्षर बना ले इससे कीडा अक्षर ही बनायेगा यह नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार गोविंद चाचक जैसा कोई द्रव्य दीक्षाके बाद भाव दीक्षाके योग्य भी होता है पर प्रत्येक ऐसा नहीं हो सकता । अत सब जगह उचितताका विचार आवश्यक है । केवल प्रवृत्ति मात्रका तो निषेध ही है । न चैतत्परिणते चारित्रपरिणामेति || ६३ || (४३०) मूलार्थ - चारित्र के परिणामकी उत्पत्ति होने से उत्सुकता नहीं होती ॥६३॥
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विवेचन - जिसे चारित्रके भाव प्रगट हो गये हैं, जो चरित्रका यथार्थ स्वरूप समझ कर उसे लेनेमें तल्लीन हो गया है वह कभी उत्सुकता नहीं बतायेगा । उचित समय पर अकाल उत्सुकतासे कोई कार्य न करेगा |
तस्य प्रसन्नगम्भीरत्वादिति ॥ ६४॥ (४३१)