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आठवां अध्याय। अब आठवां अध्याय प्रारंभ करते हैं, उसका यह पहला सूत्र हैकिं चेह बहुनोक्तेन, तीर्थकृत्त्वं जगद्वितम् । परिशुद्धादवाप्नोति, धर्माभ्यासान्नरोत्तमः ॥४३॥
मूलार्थ-अधिक कहनेसे क्या लाभ ? उत्तम पुरुष अतिशुद्ध धर्मके अभ्याससे जगतके लिये हितकारी तीर्थकर पदको प्राप्त करता है ॥४३॥
विवेचन-किं च- क्या अर्थ - इह- धर्मफलके बारेमें, बहुनोक्तन- बहुत कहनेसे, तीर्थकृत्त्वं- तीर्थकर पद, जगद्धितंजगतके जन्तुओंके हितको करनेवाला, परिशुद्धाव- अतिनिर्मल व शुद्ध, अवामोति-धर्माभ्याससे प्राप्त करता है, नरोत्तमः- स्वभावसे ही अन्य सामान्य पुरुषोमे मुख्य। ___धर्मके फलका बहुत वर्णन करनेसे क्या लाभ ? मनुष्य जगत्के लिये हितकारी तीर्थंकर पद भी धर्मसे प्राप्त कर सकता है तो इंद्रादिकी विभूतिएं मिलना तो मामूली बात है। यह फल उत्तमोत्तम पुरुष ही प्राप्त कर सकता है। तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकनेवालेके -सामान्य गुण इस प्रकार है