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४२६ : धर्मविन्दु जगतमें, स्थान-इन्द्र आदिकी अवस्था आदि शुम स्थान, अनुबन्धगुणोपेतं-असली स्वर्णके घडेकी तरह उत्तरोत्तर शुभानुबन्ध सहित शुभ स्थान, धर्मात्-धर्मसे, आप्नोति-प्राप्त करता है, मानव:मनुष्य, मनुष्य ही परिपूर्ण धर्मसाधन प्राप्त कर सकता है।
इस लोकमे जो उत्तमोत्तम स्थान है जैसे इंद्र आदिका, वे सब धर्मसे ही मनुष्यको मिलते हैं। उसमे भी उत्तरोचर गुणोंकी वृद्धि होती है। भावार्थ यह है कि अच्छी तरह सेवन करनेसे धर्मसे मनुष्य पुण्यानुबंधी पुण्य उपार्जन करता है और उससे शुभ मार्ग में उत्तरो. तर बढ़ता जाता है।
तथाधर्मश्चिन्तामणिः श्रेष्टो, धर्मः कल्याणमुत्तमम् । हित एकान्ततो धर्मो, धर्म एवामृतं परम् ॥४१॥
मूलार्थ-और धर्म श्रेष्ठ चिंतामणि रत्नके समान है, धर्म उत्तम कल्याणकारी है, धर्म एकान्त हितकारी है और धर्म ही परम अमृत है ॥४१॥
विवेचन-यहां बारवार धर्म शब्दको कहा है उसका कारण है कि धर्म अवर आदरणीय है यह बताने के लिये ही। अत. धर्मका आदर करे।
तथाचतुर्दशमहारत्नसभोगानृष्वनुत्तमम् । चक्रवर्तिपदं प्रोक्तं, धर्महेलाविजृम्भितम् ॥४२॥