Book Title: Dharmbindu
Author(s): Haribhadrasuri, Hirachand Jain
Publisher: Hindi Jain Sahitya Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 482
________________ ४४६ : धर्मविन्दु ध्वनि, ४ चामर, ५ सिंहासन, ६ भामण्डल, ७ दुन्दुभि, और ८ छन- ये तीर्थंकर के आठ महाप्रातिहार्य है । ततः परम्परार्थकरणमिति || १८ || ( ४९९ ) उत्कृष्ट परार्थ करनेवाला है ||१८|| मूलार्थ - और विवेचन - परम - उत्कृष्ट, परार्थस्य - दूसरों का कल्याण करने वाला | दूसरो का कल्याण करनेका उत्तम मार्ग उपदेश हैं। तीर्थकर अपना उपदेश अपनी अमृत तुल्य वाणी द्वारा सबको आनंद देनेवाली वाणी में देते है । सब प्राणी उसे अपनी अपनी भाषा में समझ जाते हैं । वह चारों तरफ एक योजन प्रमाण तक रहे हुए सब प्राणियों - को सुनाई देती है । वाणीसे तथा भिन्न भिन्न विचित्र उपायों द्वारा दूसरोको मोक्ष दिलानेका उपकार करनेवाला तीर्थंकरपद है । उन उपायोको निम्न सूत्रोंसे बताते हैं: अविच्छेदेन भूयसां मोहान्धकारापनयनं हृद्यैर्वचन भानुभिरिति ||१९|| (५०० ) 7 मूलार्थ यावज्जीव मनोहर वचन किरणोंसे प्राणियों के मोहान्धकारको नष्ट करते हैं ||१९|| 1 विवेचन- अविच्छेदेन -- यावज्जीव-जीवन पर्यत, भूयसाम्अनेक लाखो, करोडो भव्य प्राणियोंको, मोहान्धकारस्य- मोहकें अज्ञानरूपी अंधकारका, अपनयनं - नाश करना, हृद्यैः- हृदयंगमं होनेवाले मनोहर, वचनभानुभिः - वचनरूप सूर्यकी किरणोसे । श्रीतीर्थकर प्रभुके शुभ व मनोहर वचनोंसे, जैसे सूर्य किरणोंसे

Loading...

Page Navigation
1 ... 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505