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धर्मफल विशेष देशना विधि : ४५५ मूलार्थ-सब जगह प्रवृत्ति रहित होनेसे ॥४१॥
विवेचन-हेय व उपादेय आदि किसी भी वस्तुमें सर्वथा प्रवृत्तिका त्याग होता है।
समाप्तकार्यत्वादिति ॥४२॥ (५२३) मूलार्थ-सव कार्योंकी समाप्ति हो चुकी है ॥४२॥
विवेचन-उनके लिये जो भी साध्य कार्य थे वे सब पूर्ण हो चुके । उनके योग्य सब पदार्थ व सव कार्य वे पूरे कर चुके हैं। अतः उन मोक्षके सिद्ध जीवोंको कोई काम व कोई प्रवृत्ति नहीं है।
न चैतस्य कचिदौत्सुक्यमिति ॥४३॥ (५२४)
मूलार्थ-उनको किसी कार्यके करनेमें उत्सुकता नहीं रहती ॥४३॥
विवेचन-किसी भी कार्यके लिये इन निवृत्त प्राणियोंको आकांक्षा या उत्सुकता होती ही नहीं । दुःखं चैतत् स्वास्थ्यविनाशनेनेति ॥४४॥ (५२५)
मूलार्थ-स्वस्थताका नाश करनेसे उत्सुकता दुःख है।।४४॥
विवेचन-एतत्-उत्सुकता, स्वास्थ्यविनाशनेन-स्वास्थ्य जो सब सुखका मूल है उसका हरण करनेसे।
सुखका मूल स्वस्थता या शाति है, उत्सुकतासे शांति नहीं रहती अतः दुःख होता है।
यदि उत्सुकतासे स्वस्थताकी हानि होती है तब भी वह दुःखरूप कैसे हैं? कहते हैं---