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४५६ : धर्मविन्दु दुःखशक्त्युद्रेकतोऽस्वास्थ्य सिद्धेरिति ||१५|| (५२६ ) मूलार्थ - दुःखके बीजरूप उत्सुकता से अस्वस्थता सिद्ध होती है ॥ ४५ ॥
विवेचन- दुःखशक्तेः-दुःखके बीजरूप, उद्रेकतः - उत्पन्न होनेसे, सिद्धेः - सिद्ध होती है।
दुःखका बीज या कारण उत्सुकता है । जो तृष्णावाले है या उत्सुक रहते हैं उनके चित्तको शाति नहीं रहती । उत्सुकता से आत्मा अस्वस्थ रहती है अतः उत्सुकता ही दुःख है।
अस्वस्थताकी सिद्धि होना कैसे जाना जाता है ? कहते हैं
अहितप्रवृति ||१६|| (५२७)
मूलार्थ - अहितकर प्रवृत्तिसे (अस्वस्थता जानी जाती है ) | विवेचन - जब मनुष्य हितकारी मार्गको छोड़कर अहितकर राहकी ओर प्रवृत्ति करता है तो जानना कि वह मनकी अस्वस्थता के कारण है । अस्वस्थता उत्सुकता - तृष्णासे पैदा होती है। तृष्णा ही मनुष्यको अहितकर मार्ग में ले जाती है। आत्माकी अस्वस्थतासे मनको प्रीति देनेवाली वस्तुओंमें प्रमादसे प्रवृत्ति होती है। ऐसी स्त्री आदिकी ओर अहितकर प्रवृत्तिसे अस्वस्थता प्रगट होती है ।
अब स्वस्थताका स्वरूप कहते हैं
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स्वास्थ्यं तु निरुत्सुकतया प्रवृत्तेरिति ||१७|| (५२८) मूलार्थ - उत्सुकता रहित प्रवृत्ति ही स्वस्थता (शांति है ) ||४७||