Book Title: Dharmbindu
Author(s): Haribhadrasuri, Hirachand Jain
Publisher: Hindi Jain Sahitya Pracharak Mandal

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Page 500
________________ ४६४ : धर्मविन्दु विवेचन - इस प्रकार उत्सुकताका पूर्ण नाश हो जाने पर सिद्ध जीवोat flour / उपमा रहित ) सुखकी प्राप्ति होती है यह बात सूत्र परंपरा से सिद्ध हुई । ऐसी ही श्रद्धा रखना । अत्र उपसंहरामें उसे कहते हैं सद्ध्यानवह्निना जीवो, दग्ध्वा कर्मेन्धनं भुवि । सद्ब्रह्मादिपदैर्गीतं स याति परमं पदम् ||१६|| | मूलार्थ- शुक्ल ध्यानरूप अग्निसे कर्मरूपी इंधनको जलाकर 'सत् ब्रह्म' आदि पदों द्वारा जीव शास्त्रमें वर्णित परम पदको पाता है ||४६ || विवेचन - सद्ध्यानवह्निना - शुक्ल ध्यानके जलते हुए अग्निद्वारा, जीवः - भव्य प्राणी, दूग्ध्वा - जलाकर, कर्मेन्धनं भवोपग्राही कर्मरूप काको, भुवि - मनुष्य क्षेत्र - पृथ्वीमें, सद्ब्रह्मादिपदैःसुंदर ऐसे ब्रह्म, लोकातवासी आदि शब्द और पदोंसे वर्णित, स:शुद्ध साधुधर्मका आराधन करनेवाला जीव, याति - पाता है । इस मनुष्यक्षेत्र पृथ्वी पर रहा हुआ शुद्ध धर्मको आराधन करनेवाला जीव शुक्ल ध्यानकी अग्निसे सब कर्मरूप इधनको जला देता है । शास्त्रोमे सद् या ब्रह्मपदेसे कहा हुआ परम पद वह प्राप्त करता है। मनुष्य ही यह पद पा सकता है । वह लोकांत या सिद्धक्षेत्र इस चौदह राज होकके उपर आया हुआ है। कर्म रहित जीवकी ऊर्ध्व गति होकर वहां कैसे जाता है ? कहते हैं

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