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४६२ : धर्मबिन्दु
सिद्ध जीवकी आशातृष्णाएं नष्ट हो चुकी है अतः वह निष्काम होना सिद्ध जीवका स्वभाव है। इस कारण यद्यपि वह सिद्धक्षेत्रमें जाते हैं तब भी उनका व सिद्धक्षेत्रका कोई संबंध नहीं है। उसका कारण यह है किऔत्सुक्यवृद्धिहि लक्षणमस्याः, हानिश्च
समयान्तरे इति ॥५८।। (५३९) मूलार्थ-एक समयमें उत्सुकताकी वृद्धि और दूसरे समय नाश (अन्य वस्तु प्राप्तिका ) लक्षण है ॥५८॥
विवेचन-लक्षणमस्याः- अर्थातर ( आत्मासे मिन्न) प्राप्तिका स्वरूप, हानिश्च- उत्सुकता नाश होना, समयान्तरे-प्राप्ति समयके वादके समयमें।
सिद्ध जीव सिद्धिक्षेत्रमें जाता है फिर भी सिद्धिक्षेत्रसे उनका कोई संबंध नहीं है । किसी भी वस्तुको प्राप्त करनेके लिये जो उत्सु. कता होती है वह प्राप्तिके बाद ही नष्ट हो जाती है यह अथातर प्राप्तिका स्वरूप है और यह दुख मूलक है अतः सिद्धको ऐसी उत्सुकता नहीं होती । सिद्धको यह उसुकता लक्षण क्यों नहीं है ? कहते हैंन चैतत् तस्य भगवता, आकालं तथाव
स्थितेरिति ॥५९॥ (५४०) मूलार्थ-भगवानको यह उत्सुकता नहीं है क्योंकि यावत् काल वे उसी स्थिति में रहते हैं ॥१९॥