Book Title: Dharmbindu
Author(s): Haribhadrasuri, Hirachand Jain
Publisher: Hindi Jain Sahitya Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 503
________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४६७ तत्त्वाभ्यास रसादुपात्तसुकुतोऽन्यत्रापि जन्मन्यह, सर्वादीनवद्दानितोऽमलमना भूयासमुच्चैरिति ॥ १ ॥ - मैंने यह टीका अपनी बुद्धिकी उदारता या वाणीकी --- चतुराई प्रगट करने या अन्य किसी कारण से नहीं की पर तत्वके अभ्यासके रससे पुण्य आर्जन करके अन्य जन्ममे भी सब दुखोका नाश होनेसे निर्मल मनवाला बनूं ऐसी शुभ इच्छासे यह टीका को है । मुनिचंद्रसूरिविरचित धर्मविन्दुवृत्ति समाप्त ॥ प्रत्यक्षरं निरूप्यास्था ग्रन्थमानं विनिश्चितम् । अनुष्टुभां सहस्राणि त्रीणि पूर्णानि बुद्धयताम् ॥ के मानको निश्चित करनेके लिये प्रत्येक अक्षर के हिसाब से पूर्ण तीन हजार अनुष्टुभ श्लोकके बराबर प्रमाण है ऐसा जाना जाता है || . ॥ संपूर्ण ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 501 502 503 504 505